________________
मयंकाण्डः३] 'मणिप्रभा'व्याख्योपेतः
समिदिन्धनमेधेष्यतर्पणैधांसि भस्म तु ॥ ४६१ ॥ स्याद् भूतिर्भसित रक्षा क्षारः ३पात्रं नुवादिकम् । ४नुवः लुगपधरा सोपभृक्षज्जुहूः पुनरुत्तरा ॥४२॥ ७ध्रुवा तु सर्वसंज्ञार्थ यस्यामाज्यं निधीयते।।
१. 'समिधा (हवनकी लकड़ी) के ६ नाम हैं-समित् (-मिध ), इन्धनम् , एषः, इध्मम् (न ।+पु न ), तर्पणम्, एधः (धस , न)॥
. २. 'राख, भस्म'के ५ नाम है-भस्म (स्मन् , न ), भूतिः, भसितम्,. रक्षा, क्षारः।।
३. 'यस सम्बन्धी सुवा आदि पात्रो'का १ नाम है-पात्रम् ॥ ___४. 'सुवा ( यशमें हवनका घृत जिससे छोड़ा जाता है, उस पात्रविशेष ) के २ नाम हैं-सुवः, सक् (-च , स्त्री)॥ .
विमर्श- “यद्यपि बाहुमात्र्यः सनः पाणिमात्रपुष्करास्वाविला हूँ, समुखप्रसेका मूलदण्डा भवन्ति" तथा "अरस्निमात्रः सवोऽङ्गष्ठपर्ववृत्तपुष्करः" (का० औ० स० १ । ३ । ३८-३६) इन 'कात्यायन श्रौतसूत्रोंके अनुसार 'सवः और सक'-ये दोनों यज्ञपात्र परस्पर भिन्न होनेसे पर्यायवाचक नहीं है, तथापि इन दोनों ही पात्रोंसे हवनकार्य (अग्निमें घृताहुति-दान ) किये जानेके कारण यहां दोनोंको सामान्यतः पर्याय मान लिया गया है। उनमें "खादिरः संवः" (का० औ० सू० १३४० )के अनुसार 'सव' कत्थे ( खदिर ) की लकड़ीकी और "वैककतानि पात्राणि" (का० श्रो० सू० ११३।३२ )के अनुसार 'सच' कटाय नामक काष्ठकी बनायी जाती है । इन सूत्रद्वयोक्त प्रमाणोंसे भी 'सव और सच' पात्रोंका भिन्न होना स्पष्टतः प्रमाणित होता है ।
५. अधरा सुवा'का १ नाम है-उपभृत् ।। ६. 'उत्तरा सुवा'का १ नाम है-जुहूः ॥
विमर्श-शतपथब्राह्मणके "यजमानऽएव जुहमनु । योऽस्याऽअरातीयति स......... (१।४।४।१८) मन्त्रले अनुमार 'उपभृत्' संज्ञक स्रक शत्रपक्षीय है और उसे नीचेवाले भागमें रखते हैं, अत एव उसे 'अधरा' (नीचतुच्छ ) कहा जाता है । तथा उक्त ग्रन्थ के ही "अथोत्तरां जुहूमध्यूहति यजमानमेवैतद् द्विषति...........(१।४।४।१६)" मन्त्रके अनुसार 'जुहू' संज्ञक सुक यजमानपक्षीय है और उसे 'उपभृत्' संज्ञक सकसे ऊपर रखते हैं, अतएव उसको 'उत्तरा(उच्च-श्रेष्ठ ) कहा जाता है।
७. 'जिसमें सब संशाके लिए घृत रखा जाता है, उस यशपात्र विशेष'का. १ नाम है-ध्रुवा ॥