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देवकाण्ड: २] मणिप्रभा'व्याख्योपेतः
१कायः कोलम्बकस्तस्या २ उपनाहो निबन्धनम् ॥ २०४ ॥ ३दण्डः पुनः प्रवालः स्यात् ४ककुभस्तु प्रसेवकः । ५मूले वंशशलाका स्यात्कलिका कूणिकाऽपि च ॥ २०५ ॥ '६कालस्य क्रियया मानं तालः ७साम्यं पुनर्लयः। पद्रत विलम्बितं मध्यमोघस्तत्वं घनं क्रमात् ॥ २०६॥ स्मृदङ्गो मुरजः १०सोऽकयालिङ्ग)लक इति त्रिधा। । १. 'ताररहित वीणाके ढाँचे'का १ नाम है-कोलम्बकः ।।
२. 'वीणामें जहां तार बांधे जाते हैं, उस स्थान'का १ नाम हैउपनाहः॥
३. 'वीणाके दण्ड'का १ नाम है-प्रवालः ( पु न ) ॥
४. 'वीणाके दण्डके नीचेवाले बड़े भाण्ड'के २ नाम हैं- ककुभः, प्रसेवकः॥
५. 'वीणाके मूलमें स्थित तार बांधे जानेवाली वंशशलाका'के २ नाम हैंकलिका, कूणिका ॥
६. 'ताल (गानेके समयमें नियामक कारण )'का १ नाम हैताल: ॥
७. 'लय (वक्ष्यमाण 'द्रत, विलम्बित' श्रादि बाजाओंके ध्वनिकी परस्परमें समानता )का १ नाम है-लयः । (कुछ लोग 'ताल-विशेषको ही 'लय' कहते हैं )॥
. ८. 'द्रत, विलम्बित तथा मध्य लयो'का क्रमशः १-१ नाम है-ओघ:, तत्वम् , घनम् (+अनुगतम् )। - विमर्श-नाट्यशास्त्रमें 'द्रत' आदि लयोंके अनुसार क्रमशः 'ओघः' श्रादि वाद्य-प्रकार हैं, ऐसा कहा गया है ।
६. 'मृदङ्ग'के २ नाम हैं-मृदङ्गः, मुरजः ॥
१०. वह 'मृदङ्ग' तीन प्रकारका होता है-१ अङ्की (-किन् ।+अङ्कयः), २ आलिङ्गी (- लिङ्गिन् । + प्रालिङ्गयः ) और ऊर्ध्वकः (+आभोगिकः) ।
विमर्श-प्रथम 'अङ्की' मृदङ्ग हरीतकी (हरे)के श्राफारके समान अर्थात् बीचमें मोटा तथा दोनों छोरमें पतला होता है, यथा-पखावज, इसे क्रोडके मध्य (गोद)में रखकर बजाया जाता है । द्वितीय 'पालिङ्गी' मृदङ्ग गोपुच्छके श्राकारके समान एक भागमें मोटा तथा दूसरे भागमें क्रमशः पतला होता है, यथा-तबला, इसे वाम भागमें रखकर बजाया जाता है । तृतीय 'ऊध्र्वक' मृदङ्ग यव ( जो) के आकारके समान होता है, इसे दहिने भागमें रखकर बजाया जाता है । ऐसा नाट्यशास्त्रमें कहा गया है ।
६ अ० चि०