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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ कथानक का स्थान ग्रंथ में निर्दिष्ट नहीं है, संभवत: यह राजगिर के समीप ही हो। .. तुंगिया नगरी में एक बार पार्श्वपात्यीय स्थविर मेहिल, आनंदरक्षित, कालिकपुत्र एवं काश्यप स-संघ पधारे। वहां के श्रावकों को प्रसन्नता हुई और वे उनके दर्शनार्थ गये। स्थविरों ने उन्हें न केवल चतुर्याम धर्म (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह) का उपदेश दिया अपितु उन्होंने यह भी बताया कि संयम पालन से संवर होता है और तप से कर्मनिर्जरा होती है। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वकृत कर्म, पूर्वकृत संयम, कर्मबन्ध (शरीरनाम कर्म) एवं आसक्ति से प्राणियों की गति निर्धारित होती है। इसका अर्थ यह है कि सराग संयम एवं सराग तप कर्मबंध में कारण होता है और आसक्ति की तीव्रता-मंदता भावी गति निर्धारक होती है। इससे यह फलित होता है कि गतियों का बंध राग अवस्था में ही होता है वीतराग अवस्था में नहीं होता। एक अन्य कथानक में कुछ पार्खापत्य स्थविर राजगिर में महावीर से प्रश्न करते हैं कि असंख्यलोक में अनंत और परिमित रात्रि-दिवस कैसे हो सकते हैं? उन्होंने भ. पार्श्व के उपदेशों का उल्लेख करते हए बताया कि यह संभव है क्योंकि अनंत कालाणु संकुचित होकर असंख्य क्षेत्र में समाहित हो जाते हैं। इसी प्रकार, प्रत्येक जीव की अपेक्षा काल परिमित भी हो सकता है। पार्श्वनाथ के अनुसार लोक शाश्वत, आलोक परिव्रत, परिमित एवं विशिष्ट आकार का है। इसमें अनन्त और असंख्य जीव उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं। वस्तुत: जीवों के कारण ही यह क्षेत्र लोक कहलाता है। भगवती के ९.३२ में वाणिज्य ग्राम (वैशाली के पास ही) में पापित्यीय स्थविर गंगेय ने भगवान महावीर से अनेक प्रश्न किये। महावीर ने भ. पार्श्व के मत का उल्लेख करते हुये बताया कि (१) विभिन्न प्रकार के जीव सांतर एवं निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं। (२) सभी जीव चार गतियों में उत्पन्न होते हैं। नरक गति में सात नरक
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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