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पार्श्वगत्य कथानकों के आधार पर भ० पार्श्वनाथ के उपदेश
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स्थूल या त्रस - हिंसा का ही त्याग कर पाता है । इसका यह अर्थ नहीं लेना चाहिये कि श्रमण उसे त्रसहिंसा की अनुमति देता है और स्वयं तथा श्रावक के कर्मबंध का भागी होता है। गृहस्थ की स्थावर हिंसा उसके अप्रत्याख्यानी पापबंध का कारण बनती है । वस्तुतः त्रसकाय में आयुष्य • भोग रहे प्राणी ही स माने जाते हैं । यह भी सही नहीं है कि ऐसी कोई भी पर्याय नहीं जहां गृहस्थ प्राणी हिंसा का त्याग कर सके क्योंकि सभी स्थावर न तो त्रस के रूप में या सभी त्रस स्थावर के रूप में जन्म ले पाते हैं। साथ ही, देव, . नारकी एवं विक्रिया ऋद्धि धारकों तथा उत्तम संहननी जीवों की हिंसा तो वह कर ही नहीं सकता। फलतः अनेक पर्याय हैं जहां हिंसा का परित्याग हो सकता है। इसी प्रकार, कोई गृहस्थ त्रसहिंसा के प्रत्याख्यान का व्रत लेकर स्थावर काय की हिंसा के कारण व्रत भंगी नहीं कहा जा सकता । फलत: हिंसा-अहिंसा संबंधी व्रत पालन का अर्थ लौकिक जीवन एवं पर्याय-विशेष के आधार पर लेना चाहिये ।
भगवती सूत्र और भ० पार्श्व के उपदेश
ऐसा माना जाता है कि भगवती सूत्र के पूर्ववर्ती शतक प्राचीन हैं। इन में १.९, २.५, ५.९, ९. ३२ आदि में पार्श्वपत्यों एवं स्थविरों के विवरण और कहीं कहीं उपदेश भी पाये जाते हैं । इनमें कहीं कहीं पार्श्वापत्य श्रावक / स्थविर महावीर के पंचयामी एवं सप्रतिक्रमणी धर्म में दीक्षित होते भी बताये गये हैं। · वैश्यपुत्रं कालास के कथानक में बताया गया है कि सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग को दो प्रकार से परिभाषित किया जाता सकता है - द्रव्यार्थिक नय या निश्चय - नय से इन पदों का अर्थ अभेदात्मक आत्मा ही है और व्यवहार नय से इनका अर्थ वे प्रक्रियायें हैं जिनसे आत्मत्व के ये गुण परिपक्व रूप में अभिव्यक्त होते हैं । उदाहरणार्थ, संयम की अभिव्यक्ति के लिये कषायों की गर्हा की जाती है। इस कथानक से यह भी प्रकट होता है कि भ० पार्श्व के समय में ये पारिभाषिक शब्द प्रचलित थे । इनके परिपालन से अगार अनगारत्व की ओर अभिमुख होता है। इस कथानक से भी यह तथ्य प्रकट होता है कि पार्श्वनाथ आत्मवादी थे । इस