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________________ ३२ तीर्थंकर पार्श्वनाथ मूल रूप में, बिना कथानक के, पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त, यह प्राचीनतम रूपों में से अन्यतर ग्रंथ माना जाता है। फलत: इसी ग्रंथ से हम भ. पार्व के उपदेशों की चर्चा करेंगे। __इसमें जहाँ वर्द्धमान के कर्मवाद और कर्म संबर के उपाय - इन्द्रिय विजय, कषाय विजय एवं मन विजय (उन्नीस गाथाओं में) बताये गये हैं, वहीं वे पार्श्व ऋषि के उपदेश (चौबीस सूत्रों में) निग्रंथ प्रवचन का संपूर्ण सार प्रस्तुत करते हैं जिन्हें महावीर ने अधिकांश में मान्य किया। पार्श्व के इन उपदेशों में (१) विचारात्मक (२) आधारात्मक - दोनों रूप समाहित हैं। वैचारिक दृष्टि से, पार्श्व के उपदेशों में (१) पंचास्तिकाय (२) आठ कर्म, कर्म बन्ध, कर्म विपाक आदि के रूप में कर्म वाद (३) चार गतियां और मुक्तिवाद (४) शाश्वत, अनन्त, परिमित एवं परिवर्तनशील .विशिष्ट आकार का लोक (५) जीव और अजीब तत्व और उनकी ऊर्ध्व - अधोगति तथा जीव का कर्तृत्व - भोक्तृत्व (६) चतुर्याम धर्म (७) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के दृष्टिकोणों से वर्णन की निरूपणा (८) हिंसा एवं मिथ्या दर्शन आदि अठारह पापस्थानों की दुखकरता (९) इनसे विरति की सुख-करता आदि के सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। . आचारगत उपदेशों में बताया गया है कि मनुष्य को हिंसा, कषाय एवं पाप स्थानों में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए क्योंकि ये दु:ख के कारण हैं। सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन से सुख.की प्राप्ति होती है। प्राणियों को सचित्त एवं सांसारिक प्रपंच - विरमण करना चाहिए जिससे भव-भ्रमण का नाश हो। प्राणियों को चातुर्याम धर्म का पालन करना चाहिए। इसके पालन से कर्म-द्वार संवृत होते हैं। पार्श्व के ये उपदेश हमें आत्मवाद एवं निवृत्तिमार्ग का उपदेश देते हैं। इन उपदेशों में सचेल - अचेल मुक्ति की चर्चा नहीं है, मात्र चातुर्याम धर्म की चर्चा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह विषय उत्तरवर्ती काल में विचार -विन्दु बना होगा जैसा केशी-गौतम या अन्य संवादों में प्रकट होता है। इस ग्रन्थ में “जीव” एवं “अत्त" (आत्मा) - दोनों शब्दों का उपयोग समान
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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