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पापित्य कथानकों के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के उपदेश
३१ ग्रन्थों में नंदिषेण आदि स्थविर तथा सोमा, जयन्ती, विजया तथा प्रगल्भा आदि परिव्राजिंकाओं के भी उल्लेख हैं। अनेक कथानकों में पापित्य स्थविर या श्रावक महावीर के धर्म में दीक्षित तो होते हैं. पर उनमें उनके उपदेश नहीं हैं। ये सभी संवाद और कथानक वाराणसी एवं मगध क्षेत्र से संबंधित हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि इन क्षेत्रों में पार्वापत्यों का महावीर काल में भी काफी प्रभाव था। इन्हें अपने पक्ष में करने के लिए महावीर को अनेक बौद्धिक एवं कूटनीतिक उपाय काम में लेने पड़े होंगे।
__ कुछ बौद्ध ग्रंथों१३ में भी पार्श्व और उनसे संबंधित स्थविरों के कथानक पाये जाते हैं। इन उल्लेखों तथा जैन कथाओं के आधार पर ही पार्श्व की ऐतिहासिकता तथा समय (८७७-७७७ ई. पू. या ८१७-७१७ ई. पू. यदि महावीर का समय ५४०-४६८ ई. पू. माना जाय, या ७९९-६९९ ई. पू.) निर्धारित किया जाता है। भ. पार्श्व की ऐतिहासिकता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति इस युग में जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने की थी। ___ भ. पार्श्व के प्रमुख उपदेशों में विचारात्मक और आचारात्मक - दोनों कोटियाँ समाहित हैं। इस आलेख में इनका संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है। यहाँ यह संकेत देना आवश्यक है कि मैं इतिहासज्ञ नहीं हूँ, धार्मिक ग्रंथों का वैसा अध्येता भी नहीं हूँ जैसी यह विद्वान मंडली है। अत: इस आलेख में अनेक अपूर्णतायें होंगी। आपके बुद्धिपरक सुझाव मुझे प्रिय होंगे।
ऋषि भाषित में पार्श्व ऋषि के उपदेश
दिगंबर ग्रन्थों में ऋषि भाषित का उल्लेख नहीं मिलता, पर श्वेताम्बर मान्य स्थानांग, समवायांग तथा उत्तरवर्ती ग्रंथों में इसका प्रश्न व्याकरण के अंग अथवा कालिक श्रुत के रूप में और तत्वार्थाधिगम भाष्य'३ में अंगवाह्य के रूप में इसका विवरण मिलता है। जैन इसे अर्धमागधी का प्राचीनतम - आचारांग का समवर्ती या पूर्ववर्ती - ५००-३०० ई. पू. का ग्रंथ मानते हैं। इसमें ४५ ऋषियों के उपदेशों में अर्हत् पार्श्व और वर्द्धमान के उपदेश भी सम्मिलित हैं। यही एक ऐसा स्रोत है जिसमें भ. पार्श्व के उपदेश