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________________ तीर्थकर पार्श्वनाथ है. पर दिगंबरों की स्थिति काफी भिन्न दिखती है। यह संघ निग्रंथ कहलाता था। महावीर को भी तो “निगंठ-नातपुत्त” कहा गया है। इनके लिए जैन शब्द तो ८-९वीं सदी की देन है। इनका मुख्य कार्य क्षेत्र तो वर्तमान बिहार तथा उत्तर प्रदेश (काशी, वैशाली, कपिलवस्तु, श्रावस्ती और राजगिर आदि) रहे२,४ पर उड़ीसा और बंगाल में पार्खापत्य सराकों की उपस्थिति उनके इन क्षेत्रों में भी प्रभाव को सूचित करती है। स्वयं महावीर और उनका वंश भी मूलत: पापित्य था। भ. बुद्ध और उनके संबंधी भी प्रारंभ में पार्वापत्य ही थे। महावीर का उनके प्रति आदर भाव भी था। इसका उल्लेख उन्होंने अपने अनेक प्रश्नोंत्तरों में किया है। महावीर को पार्श्व की परंपरा का संघ, श्रुत एवं आचार प्राप्त हुआ। उन्होंने सामयिक परिस्थितियों के अनुसार उसमें कुछ संशोधन एवं परिवर्तन किये और उसे अधिक जनकल्याणी तथा वैज्ञानिक बनाया। इसीलिए वे अपने युग के नवीन तीर्थंकर बने। वर्तमान में भ. पार्श्व के उपदेशों/सिद्धान्तों से संबंधित कोई विशेष • आगम ग्रंथ नहीं हैं। पर कहते हैं कि उनके उपदेशों का सार चौदह पूर्व ग्रन्थों मे रहा होगा। दुर्भाग्य से, वे आज विस्मृति के गर्भ में चले गये हैं। पर उनके अधिकांश प्रवादान्त नामों से पता चलता है कि पार्श्वनाथ के समय भी महावीर के समान अनेक मत-मतान्तर रहे होंगे। इनके आधार पर ही उन्होंने अपने एकीकृत उपदेश दिये होंगे। उनके उपदेशों का सार ऋषि भाषित' में मूल रूप में है पर उत्तराध्ययन', सूत्रकृत, भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय, आवश्यक नियुक्ति तथा निरयावलियाओ२ आदि के समान प्राचीन ग्रन्थों में अनेक पार्खापत्य स्थविरों एवं श्रंमणोपासकों के कथानकों के रूप में यत्र-तत्र भी उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों का रचना काल ५००-१०० ई. पू. के बीच माना जा सकता है। ये उपदेश (१) केशी-गौतम संवाद (२) पेंढालपुत्र उदक (३) वैश्य पुत्र कालास, स्थविर मेहिल संघ, स्थविर गांगेय एवं अन्य पार्खापत्य स्थविर (४) भूता, काली आदि साध्वी (५) केश-प्रदेशी संवाद (६) स्थविर मुनिचन्द्र, गोशालक संवाद तथा (७) सोमिल ब्राम्हण आदि के कथानकों में पाये जाते हैं। इन
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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