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________________ प्राकृत साहित्य में भ. पार्श्वनाथ चरित पार्स ण अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खयतिन्भे, पडिरूवे उल्लीणे भद्दए विणीए। (कल्प. १५२ सूत्र)। कल्पसूत्र में यद्यपि पार्श्वनाथ के उपसर्गों का विशेष विवरण नहीं अंकित है, किन्तु वहाँ यह कहा गया है कि पार्श्वनाथ ८३ दिनों तक शरीर की ओर से सर्वदा उदासीन रहे। शरीर का त्याग कर दिया हो इस प्रकार शरीर की ओर से सर्वदा अनासक्त रहे। छद्मस्थ-काल में जो भी उपसर्ग उत्पन्न होते, यथा - देवजन्य, मनुष्यकृत और तृर्यचजातिकृत, अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आदि। ऐसे उपसर्गों के उत्पन्न होने पर उनको वे निर्भय होकर सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ होते हैं, धैर्य रखते हैं और अपना संतुलन बनाये रखते हैं - "पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाइं निच्चं वोसट्ठकाए चियंत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्ससा वा तिरिक्खजोणिया वा, अणुणोभा वा, पडिलोमा वा, ते उपन्ने सम्म सहइ तितिक्खइ खमइ अहियासेइ" - कल्प सूत्र १५४ .. यहाँ पर पार्श्वनाथ का तपस्या काल ८३ दिन अंकित है। ८४वें दिन उन्हें केवल ज्ञान हुआ.। जबकि तिलोयपण्णत्ति में पार्श्व का तपस्याकाल ४ माह (१२० दिन) का अंकित है। दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों में इसी का अनुकरण हुआ है। इससे ६९ वर्ष ८ माह के केवल ज्ञानकाल (उपदेशकाल) को जोड़ने से ७० वर्ष की दीक्षा अवधि और ३० वर्ष का कुमार काल कुल १०० वर्ष की आयु भी पार्श्वनाथ की ठीक बैठ जाती है। कल्पसूत्र में भी अन्यत्र ३० वर्ष का कुमारकाल, ७० वर्ष की भ्रामण्यपर्याय एवं समग्र एक सौ वर्ष की आयु पार्श्वनाथ की कही गयी है - "पासे अरहा तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता .... बहुपडिपुण्णइं सत्तरिं वासाइं सामण्णापदियागं पाउणित्त, एग वाससयं सव्वाउयं पाइइत्ता. खीणे" । - कल्प सूत्र १५९
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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