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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
पर विजय प्राप्त करना दिखाना ग्रन्थकारों में प्रचलित हो गया था । यद्यपि कल्पसूत्र एवं समवायांग आदि अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में भी पार्श्वनाथ पर किये गये उपसर्गों का उल्लेख नहीं है । किन्तु आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने पार्श्वस्तोत्र कल्याणमंदिर में कहा है कि "हे नाथ! उस दुष्ट कमठ ने क्रोधवेश में जो धूल आप के ऊपर फेंकी, वह आपकी छाया पर भी आघात नहीं पहुँचा सक
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प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि
रोषादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि ।
छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो ग्रस्तस्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ।।
पासनाहचरिउ (पद्मकीर्ति) आदि में पार्श्व के पूर्वभवों के उपसर्गों आदि का विस्तृत विवेचन है।
पूर्वजन्मों के वैरभाव के द्वारा तपस्या में विघ्न, उपसंर्ग आदि उपस्थित करने की पद्धति का विकास श्रमणपरम्परा में कर्मसिद्धान्त के प्रचार के साथ-साथ हुआ है। अच्छे-बुरे कर्मों का फल कई जन्मों तक व्यक्ति को भोगना पड़ता है, यह सिद्धान्त दृढ़ करने के लिए काव्यों में पूर्वभवों की परम्परा, जाति-स्मरण की परम्परा अधिक विकसित हई है। प्राकृत आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत के कंथा ग्रन्थों में “एक का अपकर्ष, दूसरे का उत्कर्ष” नामक यह मोटिफ ( अभिप्राय) बहुत प्रचलित रहा है। वसुदेवहिण्डी, तरंगवतीकथा समराइच्चकथा, कादम्बरी और कुबलयमाला कथा में इस मोटिफ के अनेक उदाहरण अंकित हैं । बौद्ध धर्म की जातक कथाऐं, निदानकथा आदि ग्रन्थ इस पर प्रकाश डालते हैं । अत: प्रतीत होता है भ० पार्श्वनाथ के जीवन चरित के साथ ५ - ६वीं शताब्दी ईस्वी में पूर्वभव एवं उपसर्ग आदि. के प्रसंग उन के चरित को विशिष्ट बनाने के लिए जुड़े हैं, जिनका विकास उत्तरपुराण एवं पासणाहचरिउ आदि में हुआ है। यद्यपि पार्श्वनाथ के विशिष्ट गुणों का स्मरण तो कल्पसूत्र में भी हुआ है 1 “पुरुषादानीय” (पुरुषों में श्रेष्ठ) के अतिरिक्त उन्हें दक्ष, क्ष-प्रतिज्ञ, असाधारण रूपवान, स्वात्मलीन, सरल स्वभावी एवं विनीत कहा गया है
दक्ष
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