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प्राकृत साहित्य में भ० पार्श्वनाथ चरित
२०. इस प्रकार भ० पार्श्वनाथ का तीर्थ प्रवर्तन काल २७८ वर्ष और महावीर भगवान का २१ हजार ४२ वर्ष प्रमाण है ।
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तिलोयपण्णत्ति में अंकित भ० पार्श्वनाथ के जीवन के उपर्युक्त विवरण का परवर्ती दिगम्बर जैन ग्रन्थों में अनुसरण और विकास किया गया है । किन्तु वे ग्रन्थ संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के हैं । संस्कृत में आचार्य रविषेण के पद्मचरित और आचार्य जिनसेन के आदिपुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराण में तीर्थंकरों का जीवन वृत है । पार्श्वनाथ का जीवन चरित उत्तरपुराण के ७३वें पर्व में वर्णित हुआ है । बाद के कवियों के लिए प्राय: यही उत्तरपुराण का अंश उपजीव्य रहा है ।
तिलोयपण्णत्तिके उक्त विवरण में भ० पार्श्वनाथ के पूर्वजन्मों का, कमठ के जीव की वैर भावना की श्रंखला का, नाग-नागिनी की रक्षा का, भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म उद्बोधन एवं चातुर्याम धर्म आदि का कोई उल्लेख नहीं है। दिगम्बर परम्परा में इन घटनाक्रमों के विकास के विवरण हेतु प्राकृत ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, संस्कृत - अपभ्रंश के ग्रन्थों का प्रभूत आधार है।. रविषेण के पद्मचरित में भ० पार्श्व के पूर्वभव की नगरी का नाम सार्केता, स्वयं का नाम आनन्द एवं पिता का नाम वीतशाक डामर होता है२१ । अन्य ग्रन्थों में ८वें भव में पार्श्वनाथ “आनन्द" मिलता है ।
तिलोयपण्णत्ति में भ० पार्श्वनाथ की तपस्या के समय किसी उपसर्ग का वर्णन प्राप्त नहीं है । किन्तु ग्रन्थ की गाथा संख्या १६४२ में कहा गया है कि सातवें तीर्थंकर (सुपार्श्वनाथ), २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं अंतिम तीर्थंकर भ० महावीर पर उपसर्ग भी होता है
सत्तम-तेवीसंतिम- तित्थयराणं च उवसग्गो । ।
आगे या ग्रन्थ में अन्यत्र कहीं इन तीर्थंकरों के किसी उपसर्ग का वर्णन नहीं है; जबकि परवर्ती ग्रन्थों के विवरण में उपसर्गों का विवेचन उपलब्ध है । अत: प्रसंग और पद्धति की प्रधानता न होने से शायद ग्रन्थकार ने पार्श्वनाथ आदि के उपसर्गों का संकेत न किया हो, किन्तु लोक में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में महापुरुषों के साथ ऐसे उपसर्गों का आना और उन