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________________ प्राकृत साहित्य में भ. पार्श्वनाथ चरित ८. तिलोयपण्णत्ति की गाथा ६११ एवं ६१२ में २४ तीर्थंकरों के चिन्हों के नाम बताये गये हैं। उनमें भगवान् पार्श्वनाथ का चिन्ह अहि (साँप) बताया है। भ. पार्श्वनाथ को अन्य नौ तीर्थंकरों (शान्ति, कुन्थ, वासु, सुमति, पद्म मुनि, सुव्रत, नमि, नेमि एवं वर्धमान) की भाँति अपने पूर्व जन्मों के स्मरण से वैराग्य उत्पन्न हुआ था। शेष १४ तीर्थंकरों को अन्यान्य बाह्य हेतुओं से वैराग्य उत्पन्न हुआ था। १०. भ. पार्श्व जिनेन्द्र ने माघ शुक्ला एकादशी के पूर्वान्ह में विशाखा नक्षत्र के रहते षष्ठ भक्त के साथ अश्वस्थ वन में दीक्षा ग्रहण की - . माघस्सिद-एक्कारसि-पुवण्हे गेण्हदे विसाहासु। पव्वज्जं पासजिणो, अस्सत्त-वणम्मि छट्ठ-भत्तेण।। मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ के साथ ३००-३०० अन्य राजकुमार भी दीक्षित हुए, जबकि वर्धमान जिनेन्द्र अकेले ही दीक्षित हुए,। भगवान् वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमीनाथ और महावीर के समान भ. पार्श्वनाथ ने भी कुमारंकाल (अविवाहित अवस्था/राजकुमार अवस्था) में तप ग्रहण किया था। शेष तीर्थंकरों ने राज्य के अन्त में तप ग्रहण किया (गा. ६७७)। ११. भ. ऋषभदेव ने एक वर्ष में (छह माह के उपवास के बाद) इक्षुरस से पारणा की थी और अन्य २३ तीर्थंकरों की भांति भ. पार्श्वनाथ दीक्षा-उपवास के दूसरे दिन गो-क्षीर में निष्पन्न अन्न (खीर) से पारणा. की थी (गा. ६७८)। १२. पार्श्व जिनेन्द्र का छद्मस्थकाल चार माह और वर्धमान जिनेन्द्र का बारह वर्ष का था। इतने समय तक इन तीर्थंकरों (ने तप किया था) को केवल-ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ था (गा. ६८५)। १३. भ. पार्श्वनाथ को चैत्र कृष्णा चतुर्थी के पूर्वान्ह में विशाखा नक्षत्र के रहते शक्रपुर में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ -
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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