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प्राकृत साहित्य में भ० पार्श्वनाथ चरित
डॉ. प्रेम सुमन जैन
जैन धर्म की ऐतिहासिक परम्परा में २४ तीर्थंकरों के जीवन-चरितों का विशेष महत्व है। उनमें भ० पार्श्वनाथ का जीवन श्रमण परम्परा का महत्त्वपूर्ण अंग है । भ० पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में सर्व प्रथम प्राकृत साहित्य के ग्रन्थ ही प्रारम्भिक जानकारी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें काव्यात्मक रंग और घटनाओं का विकास परवर्ती साहित्य में हुआ है ।
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प्राकृत
प्राकृत साहित्य में जो ग्रन्थ आज हमें उपलब्ध हैं उनमें अधिकांश प्राचीन ग्रन्थ दार्शनिक हैं, आध्यात्मिक हैं । दिगम्बर जैन परम्परा के प्राचीन शौरसेनी ग्रन्थों में सिद्धान्त-दर्शन का प्रतिपादन प्रमुख रूप से हुआ है, ऐतिहासिक एवं जीवन वृत्तं सम्बन्धी सामग्री अपेक्षाकृत कम है। आचार्य यतिवृषभकृत तिलोयपण्णत्ति में २४ तीर्थंकरों के विवरण के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में तथ्य उपलब्ध हैं, उनका विश्लेषण इस आलेख में तुलनात्मक दृष्टि से किया गया है । तिलोयपण्णत्ति में भ० पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में कतिपय ऐसी जानकारी भी दी गयी हैं, जो अन्य प्राकृत ग्रन्थों में प्राप्त नहीं, हैं, अथवा परवर्ती ग्रन्थकारों ने उनका विकास किया है I “पासणाह” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ में प्राप्त हुआ है । पार्श्वनाथ का चिन्ह ‘”सर्प“ है, इसकी सूचना भी इस ग्रन्थ के पूर्व के ग्रन्थों में नहीं
है ।
भ० पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में अर्धमागधी की प्राकृत के ग्रन्थों में भी विस्तार से विवरण प्राप्त होता है। इनमें समवायांग, उत्तराध्ययनसूत्र एवं कल्पसूत्र आदि प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ हैं । प्राकृत में पार्श्व के जीवन पर चरितग्रन्थ भी लिखे गये हैं । प्राकृत के प्राचीन ग्रन्थ “इसीभासियं” में
* प्रोफेसर एवं डीन, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर