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________________ १८ तीर्थंकर पार्श्वनाथ ११. चाहे जिस कोण से देखा जाए, भगवान् पार्श्वनाथ के सामाजिक / आध्यात्मिक अस्मित्व की प्रासंगिकता बरकरार है, अक्षत है - उसमें कहीं कोई किसी प्रकार का फर्क नहीं आया है। १२. ध्यान से देखने पर हम इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँच सकते हैं कि भगवान् ऋषभनाथ से भगवान् पार्श्वनाथ तक जो चिन्ताधारा प्रवाहित है, वह अटूट-अविच्छिन्न/विकासोन्मुख है; उसमे कहीं कोई अन्त:संघर्ष नहीं है। जैन धर्म, वस्तुत:, एक ऐसा धर्म है, जिसने श्रमणाचार की बहुमुखीनता पर समय-समय पर विचार किया है; उसकी प्रासंगिकता को प्रखर, तर्कसंगत और युगानुरूप बनाया है तथा अपनी साधु-परम्परा को तेजस्विता प्रदान की है। जैन धर्म में स्वीकृत श्रमणाचार इतना सूक्ष्म, पारदर्शी. सावधान और गरिमावान् है कि वह श्रावकों को निरन्तर परिष्कृत, स्वस्थ, युगोचित और अविचलित रखता आया है। किस तरह दोनों आचार परस्पर-पूरक/प्रेरक हैं, इस तथ्य को हम भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन-दर्पण में प्रतिबिम्बित देख सकते हैं। संदर्भ १. भीली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन; प्रथम भाग; भाषा खण्ड; डा. नेमीचन्द जैन; १९७१; ब्राहुई; पृ. ७९ । २. ए द्राविडियन ईटोमॉलॉजिकल डिक्शनरी; टी. बरो; १९६१; पृष्ठ ३७२; शब्द-संख्या ४४४९। ३. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास; प्रथम भाग; बलभद्र जैन; १९७३ पृष्ठ ३४६-३६४ । ४. सिरि पारसणाहचरिउ; वादिराज सूरि। ५. पासचरिय; महाकवि रइधु। ६. महापुराण; पुष्पदन्त। ७. सिरि पासणाहचरिउ; देवभद्र सूरि। ८. चौबीस तीर्थंकर : एक पर्यवेक्षण; राजेन्द्र मुनि;१९७६; पृष्ठ ११८-१३४ । ९. ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थकर; आचार्य हस्तीमलजी; १९७१; पृष्ट १४५-१९६ ।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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