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तीर्थंकर पार्श्वनाथ : समग्र सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता ८. उन दिनों तापसों का जोर था। तन्त्रवाद अपनी तरुणाई पर था। भगवान् पार्श्वनाथ तत्कालीन तन्त्रवाद को एक प्रांजल आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान करना चाहते थे ताकि उनके समकालीन लोक-जीवन में जो विकृतियाँ, असन्तुलन और विघटन आ गया था, उसका निवारण संभव हो। "पद्मावती" और "धरणेन्द्र" की वास्तविकता से हम इंकार नहीं करते; किन्तु यदि हम इन्हें क्रमश: "कुण्डलिनी" और "काल" की प्रतीक मानें तो हमारे सामने कई रहस्य-द्वार खुल जाते हैं। भगवान् पार्श्वनाथ कालजयी/आत्मजेता महामानव थे; उनका अध्यात्म स्वयं में इतनी तेजोमयता लिये हुए था कि उनके समकालीन तापसों का खोखलापन स्वत: छिन्न-भिन्न हो गया। कमठ और मरुभूति के दस भवों के आरोह-अवरोह, अन्तत: विजयी शुद्धाध्यात्म के आरोह-अवरोह हैं। हम भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन को अध्यात्म की विश्व-विजय का नाम दे सकते हैं। ९. हमें, वस्तुतः, तीर्थंकरों के जीवन-प्रसंगों की जो व्याख्या करनी थी - उन्हें ले कर जो समझ सम्प्रेषित करनी थी, उसे करने में हम सफल नहीं रहे हैं। अलंकारों और प्रतीकों के तलातल में नामालूम कितने बहुमूल्य विचार-मणि दबे पड़े हैं - इसका. सुनिश्चित बोध हमें नहीं है। भगवान् पार्श्वनाथ मात्र “पार्श्वनाथं" नहीं हैं वरन् सम्यक, स्वस्थ आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों के मोक्षोन्मुख समन्वय हैं। १०. यह मान कर चलना कि सब कुछ अपरिवर्तनीय है, जैन धर्म के 'मौलिक सिद्धान्तों की गंभीर अनदेखी है। अनेकान्तमूलक श्रमण संस्कृति परिवर्तन और विकास को आत्मसात् कर चलने वाली अभूतपूर्व संस्कृति है। विकास- (इवोल्यूशन) और परिवर्तनशीलता (चेंजेबिलिटी) तथा मूलभूत सिद्धान्तों में कहीं कोई टकराहट नहीं है। उत्पाद-व्यय-धौव्य में विकास की जीवन्त/स्पष्ट अनुभूति/उपस्थिति अत्यन्त तीव्रता से स्पन्दित है। जो लोग आग्रही हैं, उनकी बात जुदा है; किन्तु जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अनाटॉमी और मेटाबॉलिज्म (चयापचय) का ज्ञान रखते हैं, वे जैन धर्म की इस विशेषता को भलीभाँति समझ सकते हैं। पार्श्वनाथ का “पार्श्वनाथत्व'' • जब तक हम ठीक से नहीं समझेंगे, तब तक उनकी स्थूल पूजा-अर्चना का कोई अर्थ नहीं होगा।