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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
चातुर्याम व्यवस्था ने सामाजिक स्वाधीनता तथा निर्विघ्नता के द्वार खोल दिए थे; किन्तु ब्रह्मचर्य का स्वतन्त्र उल्लेख न होने के कारण नारी की स्वाधीनता को पूर्णतया परिभाषित नहीं किया जा सका था। मान लिया गया कि नारी परिग्रह है और परिग्रह-विरमण में वहाँ समाविष्ट है। इसका अर्थ पुरुष सत्ताक अध्यात्मवाद का प्रचलन माना जाएगा; किन्तु जब आगे चल कर भगवान् महावीर ने "ब्रह्मचर्य" का पाँचवाँ आयाम विवृत किया, तब नारी-मुक्ति के लिए पर्याप्त आधार बने और आध्यात्मिक उर्वरतांओं के लिए नये वातायन खुले । स्पष्ट/असंदिग्ध शब्दों में कहा गया कि स्त्री पुरुष के लिए जिस तरह साधना-विघ्न है, ठीक वैसे ही पुरुष भी स्त्री के लिए साधना में बहुत बड़ी अड़चन है। यदि स्त्री परिग्रह है, तो पुरुष भी उस सरणि पर परिग्रह ही है। अपरिग्रह की इस नयी परिभाषां ने जैन धर्म की गरिमा को समृद्ध किया और चतु:संघ को एक नया अर्थ तथा स्वस्थ छवि प्रदान की। भगवान् पार्श्वनाथ से जो रिक्थ-संपदा मिली वह आध्यात्मिक समाजवाद को अपनी कोख में लिये थी, जो आगे चल कर एक समग्र/समन्वित सामाजिक क्रान्ति का सुदृढ़ आधार बना। ६. भगवान् पार्श्वनाथ के १० भवों की कथा क्षमा-प्रतिशोध के घनीभूत द्वन्द की कथा है, जिसने व्यक्ति-शुद्धि और आत्मबल की नयी इबारतें उत्तिष्ठ की और यह सिद्ध किया कि अन्तत:वीतरागता ही विजयिनी होती है। समाज-शुद्धि के लिए व्यक्ति-शुद्धि कितनी महत्वपूर्ण है, इसकी संपूर्ण विकास-कथा भगवान पार्श्वनाथ के दस पूर्व भवों मे विवत है। हम भगवान् के इन पूर्व भवों को एक दीर्घ-कालिक पर्युषण की संज्ञा दे सकते हैं। ७. भगवान् पार्श्वनाथ की जीवन-घटनाओं मे हमें राज्य और व्यक्ति, समाज और व्यक्ति, तथा व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबन्धों के निर्धारण के.रचनात्मक सूत्र भी मिलते हैं। इन सूत्रों की प्रासंगिकता आज भी यथापूर्व है। हिंसा और अहिंसा का द्वन्द भी हमें इन घटनाओं में अभिगुम्फित दिखाई देता है। ध्यान से देखने पर भगवान् पार्श्वनाथ तथा भगवान् महावीर का समवेत् रूप एक सावभौम धर्म के प्रवर्तन का सुदृढ़ सरंजाम है।