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तीर्थंकर पार्श्वनाथ : समग्र सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता
. - डा. नेमीचन्द जैन*
१. ऐतिहासिक तथ्यों के असंतुलित दोहन के फलस्वरूप जैन तीर्थंकरों के बारे में देश-विदेश में जो भ्रम फैले हैं; उनके प्रामाणिक निरसन का पुरुषार्थ आवश्यक है। अधिकांश विद्वान् (इतिहासविद नहीं) भगवान् महावीर को जैनधर्म का प्रवर्तक प्रतिपादित करते हैं। शिक्षा-संस्थाओं में जो पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं, दुर्भाग्य से उनमें भी यह गलतफहमी दर्ज हुई है। वस्तुत: भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं, जिनकी पृष्ठभूमि पर भगवान् ऋषभनाथ से ले कर पार्श्वनाथ तक तेईस तीर्थंकर और हुए। कम से कम . भगवान् नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर को ले कर इतने निर्विवाद और ठोस सुबूत हैं . कि अपरिपक्व/अपरिपूर्ण अध्ययन के कारण स्थापित भ्रान्त धारणाएं स्वत: उन्मूलित हो जाती हैं। यथार्थ यह है कि जैनधर्म (श्रमण संस्कृति) संपूर्ण भारत में व्याप्त था और द्राविड़ जन, जो पूरी तरह अहिंसक थे, पूरे देश में एक छोर से दूसरे छोर तक बसे हुए थे। ब्राहुई (द्राविड़ भाषा) का सुदूर उत्तर-पूर्व में पाया जाना, उनके इस विस्तार का जीवन्त साक्षी है। यह तथ्य भी दस्तखत करता है कि समस्त तीर्थकर उत्तर भारत में हुए तथा आचार्य दक्षिण भारत में हुए। कन्नड़ और तमिल भाषाओं में प्रचुर जैन साहित्य की उपलब्धि भी एक ऐसा ही तथ्य है, जिसकी अनदेखी संभव नहीं है। भगवान् पार्श्वनाथ के साथ भिल्ल-जीवन (कमठ का सातवाँ भव कुरंग भिल्ल का है) से जुड़ा होना भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है। द्राविड़ भाषाओं में “वील" (तमिल)और “बील” (ब्राहुई) शब्द उपलब्ध हैं, जिनके अर्थ “धनुष” हैं। तीर-कामठी(बाण-धनुष) भीलों की परम्परित प्रजातिक पहचान हैं, जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। * इन्दौर