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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ न उनके पास और कोई दिव्यज्ञान था। फिर उन्होंने यह कैसे जान लिया कि पञ्चाग्नि तप करने वाला वह तापस मर कर कहाँ उत्पन्न हुआ। जहाँ गुणभद्र ने लिखा कि वह ज्योतिषी देव हुआ वहाँ वादिराजसूरि ने लिखा है कि वह भवनवासी देव हुआ। दोनों में यह मतभेद क्यों हुआ। इसका कारण यही हो सकता है कि उन्होंने लोक प्रचलित कथाओं से जैसा सुना वैसा लिख दिया। ७. णमोकार मंत्र का माहात्म्य नि:सन्देह णमोकार मंत्र एक महामन्त्र है और उसका अचिन्त्य प्रभाव है। परन्तु यहाँ यह जिज्ञासा है कि क्या पार्श्वकुमार ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया था। इस विषय में उल्लेखनीय है कि न तो गुणभद्राचार्य ने और न वादिराजसूरि ने पार्श्वकुमार द्वारा नाग-नागिन को. णमोकार मंत्र सुनाने की बात लिखी है। इसका कारण क्या हो सकता है। संभवत: वे जानते होंगे कि सर्प तो सुनता ही नहीं है अथवा वह बहरा होता है। वर्तमान में जीव वैज्ञानिक यह सिद्ध कर चुके हैं कि सर्प सुनता नहीं है। इतना अवश्य है कि यद्यपि सर्प ध्वनिजन्य शब्द या आवाज को नहीं सुनता है तथापि वह मानव आदि के द्वारा धरती पर पैर आदि के रखने से उत्पन्न पृथ्वी जन्य कम्पन (vibration) को अवश्य अनुभव करता है। यहाँ कोई जिज्ञासु सकलकीर्ति भट्टारक को प्रमाणरूप में उपस्थित कर सकता है कि पार्श्वकुमार ने नाग-नागिन को णमोकार मन्त्र सुनाया था। सकलकीर्ति ने अपने पार्श्वनाथ चरित के चौदहवें सर्ग में लिखा है - ततोऽतिकृपया ताभ्यां खण्डिताभ्यां जिनाधिपः । ददौ पञ्चनमस्कारान् कर्णे विश्वहितंकरान् ।। १४/९७ इसका तात्पर्य यह है कि पार्श्वकुमार ने अत्यन्त कृपा पूर्वक दो खण्डों में विभक्त नाग-नागिन के कान में णमोकार मन्त्र दिया था। यहाँ यह बात विचारणीय है कि पार्श्वनाथ से २३०० वर्ष बाद हुए सकल कीर्ति (पंद्रहवीं शताब्दी) के उक्त कथन का आधार क्या है। और उनके पहले होने वाले
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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