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तीर्थकर पार्श्वनाथ
.17वीं शताब्दी के पद्मसुन्दरसूरि नामक विद्वानों ने शीलांक का अनुसरण किया है तथा अपने ही मान्य आगम ग्रन्थों आवश्यक नियुक्ति एवं कल्पसूत्र के कथन को नहीं माना - यह बड़े ही आश्चर्य की बात है।
एक समय भगवान् पार्श्वनाथ तपस्या में लीन थे कि पूर्व जन्म का बैरी शम्बर देव आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था। अकस्मात् उसका विमान रूक गया। पूर्वजन्म के बैरवश उसने अनेक उपसर्ग किये तथा गर्जना के साथ महावृष्टि करना प्रारंभ कर दी। अवधिज्ञान से धरणेन्द्र व पद्मावती ने उपसर्ग को जाना। और उस उपसर्ग का निवारण किया। मोहनीय कर्म के क्षीण हों जाने से शम्बरकृत उपसर्ग स्वतः दूर हो गया। धरणेन्द्र और पद्मावती तो केवल निमित मात्र हुये। चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई तथा 69 वर्ष 7 माह तकं विहार करने के बाद वे निर्वाण के 1 माह पूर्व 36 मुनियों के साथ सम्मेद शिखर पर विराजमान हो गये। वहीं से उन्हें. निर्वाण प्राप्त हुआ। निर्ग्रन्थ परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का सम्मान भारतीय जनमानस में इसी से द्योतित होता है कि जहाँ. जैन परम्परा उनकी निर्वाण स्थली सम्मेद शिखर जी को कहती है, वहाँ जनसामान्य उसे पारस पहाड़ी नाम से जानता है। बिहार व बंगाल में तो सभी उन्हें समान रूप से पूजते हैं तथा अपने को धन्य मानते हैं।