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प्रभु पार्श्व की कतिपय कलापूर्ण ऐतिहासिक प्रतिमायें
३४३ (९) पार्श्वप्रभु की सर्वतोभद्र (चतुर्मुखी) प्रतिमा विदिशा म्यूजियम में विद्यमान
है जो नाग की कुण्डली पर ध्यान मुद्रा में विराजमान सप्तफणों वाली है। इसके नीचे दोनो ओर दो चंवर धारिणी की प्रतिमा के साथ साथ दो सिंह उत्कीर्णित हैं और बीच में धर्मचक्र बना है। फणावली के दोनों ओर पुष्पमाला लिए हवा में उड़ते हुए विद्याधर दिखाए गए हैं जो देवदुन्दुभि बजा रहे हैं। सुन्दरता के लिए छत्रधारी भी दिखाए गए हैं।
यह भी सातवीं सदी की लगती है। (१०) कारीतलाई (जबलपुर) की पार्श्वप्रभु की सर्वतोभद्रिका प्राप्त है जो
महन्त घासीदास की स्मृति स्वरूप म्यूजियम में अवस्थित है। जो ध्यान मुद्रा में सप्त फ़णों से अलंकृत है, चौकी पर बीच में धर्मचक्र अंकित है। उसके दोनो ओर विपरीत मुद्रा में दो सिंह अंकित हैं तथा दोनों ओर दो चंवरधारिणियां अत्यधिक कलापूर्ण ढंग से सुसज्जित है। वहीं पर सुन्दर गलीचा भी उकेरा गया है तथा चारों ओर बोर्डर पर नक्काशी की गई है। इसका एक भाग आसन से विकीर्ण हो गया है। सिर के ऊपर दो मालाधारी विद्याधर अंकित हैं। प्रतिमा नासाग्र दृष्टि ., में तथा बाल घुघराली दशा में पीछे की तरफ मुड़े हैं। बैठने की मुद्रा
तथा हाथ शरीर के साथ त्रिभुज सा बनाए हुए हैं। इसका रचनाकाल .: छठी या सातवी सदी के आसपास का लगता है। . . (११) नचनाकुठार (पन्ना) से प्राप्त सप्तफणी पार्श्वप्रभु ध्यान मुद्रा में सांप
की कुण्डलियों पर विराजमान है जिस के आस पास इन्द्र और उपेन्द्र त्रिभंगी मुद्रा में अंकित है जिनके हाथों में चंवर भी है। प्रतिमा समचतुरस्थ मुद्रा में, नासाग्र दृष्टि धारण किए है। चेहरे से आध्यात्मिक आनन्द का भाव टपक सा रहा है। गुप्त कालीन कला आदर्श चेहरे पर झलक रही है। सतना जिले के रामवन स्थित तुलसी आश्रम
संग्रहालय में यह श्रेष्ठ पार्श्वप्रभु प्रतिमा अभी विद्यमान है। (१२)नचना कुठार(पन्ना) के पास ही एक शीर्ष पहाड़ी पर पार्श्व प्रभु
कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित हैं जो चारों ओर से बड़े भारी सर्प की