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________________ ३०८ तीर्थंकर पार्श्वनाथ कुषाणकालीन भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति कुषाणकाल की अनेक जिनमूर्तियां मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्राप्त हुई हैं, जो मथुरा के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इनमें भगवान् आदिनाथ एवं भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति क्रमश: जटाओं एवं नागफण के कारण पहचानी गयी हैं। भगवान् पार्श्वनाथ तीर्थंकर के नागफण-रूपी छत्र का भी एक इतिहास है, जिसका सुन्दर संक्षिप्त वर्णनं समन्तभद्र. कृत 'स्वयम्भू स्त्रोत्र' में इस प्रकार मिलता है। तमालनीलैः सघनुस्तद्रिद्गुणैः प्रकीर्णभीमाशनि - वायुदृष्टिभिः । बलाहकैर्वैरिवशैरुपद्रतो महामना यो न चचाल योगतः ।।१३।। बृहत्फणामण्डल-मण्डपेन यं स्फूस्तडित्पिंगरुचोपसंर्गिणाम् । जुगूह नागो धरणो घराधरं विरागसन्ध्या तडिदम्बुदो यथा।। जिस समय पार्श्वनाथ अपनी तपस्या में निश्चल भाव से ध्यानारूढ़ थे तब उनका पूर्वजन्म का वैरी कमठासुर नाना प्रकार के उपद्रवों द्वारा उनको ध्यान से विचलित करने का प्रयत्न करने लगा। उसने प्रचण्ड वायु चलाई, घनघोर वृष्टि की, मेघों से वज्रपात कराया, तथापि भगवान् ध्यान से विचलित नहीं हुए। उनकी ऐसी तपस्या में प्रभावित होकर धरणेन्द्र नाग ने आकर अपने विशाल फणामण्डल को उनके ऊपर तान कर, उनकी उपद्रव से रक्षा की। इसी घटना का प्रतीक हम पार्श्वनाथ के नाग-फण चिन्ह में पाते हैं। ___ पार्श्वनाथ की एक सुन्दर मूर्ति (बी ६२) का सिर और उस पर नागफणा मात्र सुरक्षित मिला है। फणों के ऊपर स्वस्तिक, रत्नपात्र, त्रिरत्न, पूर्णघट और मीनयुगल, इन मंगल-द्रव्यों के चिन्ह बने हुये हैं। सिरपर धुंघराले बाल हैं। कान कुछ लम्बे, आँखों की भौंहें ऊर्णा से जुड़ी हुई व कपोल भरे हुए हैं। ___ पाषाण स्तम्भ (बी ६८) ३ फुट ३ इंच ऊँचा है, और उसके. चारों ओर चार नग्न जिनमूर्तियां हैं। श्रीवत्स सभी के वक्षस्थल पर है और तीन मूर्तियों के साथ भामण्डल भी हैं व उनमें से एक के सिर की जटाएं कंधों
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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