________________
पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ
. २९९ का वितान बनाते हए धरणेन्द्र का और उस पर बज्रमय छत्र धारण * करते हुए देवी पद्मावती का वेक्रियिक रूप अंकित किया गया है।
इस प्रतिमा में उपसर्ग की संयोजना समझने के लिए हम भगवान् के दाहिने कंधे के पास से प्रारम्भ करके "क्लाक-वाइज" अपनी दृष्टि दौड़ायेंगे। इस फलक पर या तो कालसंबर के विविध वैक्रियिक रूप अंकित हैं, या फिर उसकी सारी असुर सेना ही उस दुष्ट प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न दिखाई गई है। सबसे पहले भगवान् के दाहिने कंधे के समान्तर महिष पर सवार एक असुर है जिसके हाथ में पाश जैसा कोई अस्त्र है। महिष की आक्रामक मुद्रा भयानक है। उसके ऊपर आकाश में उछलता हुआ दूसरा असुर है जो भगवान् के ऊपर एक विशाल चट्टान फेंकने की मुद्रा में है। उसके गले में अस्थियों की माला और चेहरे की क्रूरता उसके राक्षसी चरित्र का प्रतीक है। वहीं पीछे एक और असुर आक्रमण करता हुआ अंकित है।
अब भगवान् के सिर के ठीक ऊपर हमें दो असर दिखाई देते हैं। पहला शंख जैसी वस्तु से भयानक नाद करता हुआ तथा दूसरा भगवान् पर तेज. फलक वाली बरछी से आक्रमण करता अंकित किया गया है। उसके बगल में, पार्श्व प्रभु के बांयें कंधे के ऊपर दो राक्षस आक्रानक मुद्रा में दिखाये गये हैं। दोनों की आकृति भयानक है और उनके हाथों में क्षेपण किये जाने वाले अस्त्र हैं। उनके नीचे सिंह पर सवार एक क्रूर आक्रमणकारी ऐसी प्रमुखता से अंकित है जिसे सहज ही कालसंबर के रूप में पहिचाना जा सकता है। दहाड़ता हुआ सिंह स्वयं आक्रामक मुद्रा में है। असुर के एक हाथ में वेधक अस्त्र तथा दूसरे में गंडासा है तथा उसका मुकुट मुण्डमाल से सजा हुआ है। . .. भगवान् के दाहिनी ओर देवी पद्मावती दोनों हाथों में छत्र का दण्ड सम्हाले खड़ी है। छत्र-दण्ड देवी की पीठ के पीछे से ऊपर फणावली तक गया है और छत्र को साधे हुए दिखाया गया है। इस प्रतिमा की जीवन्तता और गति दर्शनीय है। छत्र के भार से देवी की देह अपने आप त्रिभंग मुद्रा