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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
नयन, इस मूर्ति में बहुत प्रभावक बन पड़े हैं। मस्तक पर तीसरे नयन का संकेत है जो उनके केवलज्ञान का प्रतीक माना जा सकता है। उन्हें मुण्डित सिर दिखाया गया है। फणावली खण्डित है परन्तु उसका सादा वितान देखने जैसा है। उसके विशाल आकार का अनुमान सहज ही हो जाता है। गुप्तकाल की ही निर्मित एक और पदमासन प्रतिमा के समीप रामधन के तुलसी संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह भी चौथी शताब्दी के अंत में, या पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गढ़ी गई प्रतीत होती है। सानुपातिक सुन्दर देहयष्ठि और निश्चल ध्यामुद्रा इस प्रतिमा की विशेषता है। फणा-मण्डल का विस्तार उसके लिये मण्डप या वितान शब्द को सार्थकता प्रदान करता है। नाग की कुण्डली ही भगवान् का आसन बन गई है और वही पृष्ठ भाग में सिंहासन का रूप धारण करती हुई ऊपर जाकर फणावली में स्थिर हो गई है। यहां भगवान् के सिर पर सुन्दर केश-गुच्छ बने हैं। आसन के दानों ओर चारधारी खड़े
दिखाये गये हैं। ३. अब हम ऐलोरा की इन्द्रसभा नामक प्रसिद्ध जैन गुफा में से उस
उपसर्ग - विजेता पार्श्व-प्रतिमा का अध्ययन करना चाहते हैं जो अपने ढंग की एक अद्वितीय कलाकृति है। नवमी शताब्दी की श्रेष्ठ जैन कलाकृतियों में इस मूर्ति की गणना कला समीक्षकों द्वारा की जाती है। खिले कमल की पांखुरियों पर भगवान् ध्यानस्थ खड़े हैं। उनके चरणों के पास ही नाग की पूंछ का हिस्सा दिखाई देता है जो कुण्डली के रूप में सिमटता हुआ उनके सिर पर फणावली बनकर, सात फणों सहित वितान का रूप ले लेता है। चरणों की बांयीं ओर नाग और नागिनी का मनोहर अंकन है जो धरणेन्द्र-पद्मावती की अनन्तर पूर्व पयार्य का द्योतक है। चरणों के दाहिनी ओर धरणेन्द्र और पदमावती अपने वर्तमान रूप में, विनम्र भाव से बैठे हैं। उनके सिर पर नागफण उनकी पहिचान कराते हैं। ऊपर भगवान् के सिर पर फणा-मण्डप