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________________ २८६ तीर्थंकर पार्श्वनाथ अतिक्रमण' है। कलाकार को अपने सृजन की पहिचान तो केवल प्रतीकों के प्रयोग से ही करानी पड़ती है । छैनी और तूलिका कभी भाषा या लिपि की मोहताज नहीं होती। वे स्वयं अभिव्यक्ति की क्षमता से युक्त कला - शैलियां हैं । आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने दीक्षा लेते ही, एक आसन से, छह मास तक ध्यान किया था। दिगम्बर साधु को दो माह में केशलुंच करते रहने का विधान है। स्वास्थ्य आदि की बाधा हो जाये तब भी इसमें चार मास से अधिक का व्यवधान नहीं होना चाहिये । ऋषभदेव के निश्चल ध्यान में छह मास तक केशलुंच के लिये कोई अवकाश ही नहीं था अत: उस बीच उनके केश बढ़ते रहे । दीर्घ-काल तक ध्यान करने का यह : लोकोत्तर उदाहरण था। ऋषभदेव के उपरान्त किन्हीं परवर्ती तीर्थंकर भगवन्तों ने लगातार इतने दिनों तक ध्यान नहीं किया। इसी विशेषता के प्रतीक रूप में आदि प्रभु की दीर्घकेशी प्रतिमाएं बनाने की पद्धति प्रारम्भ हुई। ये जटाएं भगवान् के कांधों तक लहराती रहती हैं। कई जगह तो इन्हें पीछे पैरों तक लटकते और सिर पर सुन्दर जूड़े के आकार में सज्जित भी दिखाया गया है। खण्डगिरि - उदयगिरि, मथुरा, खजुराहो, देवगढ़, राजघाट, बिलहरी, उज्जयिनी आदि स्थानों पर जटाधारी आदिनाथ के अनेक मनोहर अंकन प्राप्त होते हैं । बाहुबली और उनकी माधवी लताएं मध्यलोक के अनेक भागों में तीर्थंकर अवतरित होते रहते हैं । कहीं वे सदा विद्यमान रहते हैं और कहीं कालान्तर में उनका सद्भाव पाया जाता है । हर भूमि-भाग में अपने-अपने क्षेत्र के तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रतिष्ठित करके उनकी पूजा-अर्चना करने का प्रचलन अनादि काल से चला आ रहा है। भरत क्षेत्र में केवल चौथे काल में ही चौबीस तीर्थंकरों का जन्म होता है। शेष पाँच कालों में भरत - क्षेत्र तीर्थंकर - विहीन ही रहता है। यहां उन्हीं चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित करके पूजने की परिपाटी रही है। पर,
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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