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________________ पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ - श्री नीरज जैन* देव-शास्त्र-गुरु की आराधना भव्य जीवों के लिए रत्नत्रय की प्राप्ति का अनिवार्य निमित्त और सशक्त माध्यम बताई गई है । अपने आप को । अशुभ से बचाने का यही अमोघ उपाय है तीनों से अशुभ की निवृत्ति कराकर शुभ उपाय है। देव - वन्दना, मन-वचन-काय प्रवृत्ति का सरल और सहज में चौबीस तीर्थंकरों के पावन चरित्र हमारे पुराणों में वर्णित हैं। अनेक तीर्थंकरों पर तो प्रथक पुराण ही रचे गये हैं, परन्तु उनमें भगवन्तों के दीर्घ जीवन की सामान्य घटनाओं का विस्तृत विवरण प्रायः प्राप्त नहीं होता । युगादिदेव ऋषभनाथ, बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और तेईसवें भगवान् पार्श्वनाथ ही इसका अपवाद हैं । इन तीनों का जीवनक्रम अधिक • घटना- प्रधान होने के कारण कुछ अधिक रोचक बन गया और जैन कलाकारों के लिये अधिक प्रेरणाप्रद रहा है । मन्दिर निर्माताओं और मूर्ति-प्रतिष्ठा कराने वाले भक्तों ने ऋषभदेव और पार्श्वप्रभु को प्रमुखता 'सै प्रतिष्ठित किया है । ऋषभदेव के जटा - जूट मूर्तिकला या चित्रकला के माध्यम से जब किसी व्यक्तित्व को साकार करना होता हैं, तब प्रतीक के बिना कलाकार का काम नहीं चलता । अक्षरों में अंकित प्रशस्ति तो 'छैनी या तूलिका के साम्राज्य पर लेखनी का * सतना
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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