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________________ पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ २८७ इस बार हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से, यहां एक ऐसा अनोखा व्यक्तित्व प्रगट हुआ जो साधना के क्षेत्र में तीर्थंकर भगवन्तों से भी एक पग आगे बढ़कर अग्रसर हुआ। वह महापुरुष हुए हमारे आराध्य, भगवान् ऋषभदेव के सुपुत्र बाहुबली। बाहुबली का चरित्र और चारित्र दोनों ही अनोखी महिमा से युक्त रहे। पहले उन्होंने छहखण्ड पृथ्वी के विजेता भरत चक्रवर्ती को सहज में ही जीत लिया, फिर उस विशाल साम्राज्य को बिना भोगे ही त्यागकर दिगम्बरी दीक्षा अंगीकार कर ली। आदिनाथ भगवान् का अधिकतम ध्यान काल छह मास का था, परन्तु बाहुबली स्वामी ने दीक्षा लेते ही एक वर्ष तक अडिग ध्यान किया और उसी साधना के बलपर केवज्ञान प्राप्त कर लिया। इस बीच उनका निश्चलं शरीर माटी के थूहे के समान स्थिर रहा। उनके पादमूल में नागों का निवास बन गया। उनकी देह वनस्पति के विस्तार से आच्छादित हो गई। पक्षियों ने उन लता-गुल्मों में अपने लिये घोंसले बना लिये। ऋषभदेव ने सहस्त्र वर्ष की तपस्या से जिस कर्मजाल को काटा, बाहबली ने उसे एक वर्ष के तप से निर्जीर्ण कर दिया और भगवान् के निर्वाण के पूर्व ही उन्होंने निर्वाण भी प्राप्त कर लिया। • बाहुबली स्वामी के जीवन की इन लोकोत्तर विशेषताओं ने हमारे पथ-प्रदर्शक आचार्यों को इतना प्रभावित किया कि उनके उपदेश और प्रोत्साहन से, तीर्थंकर भगवन्तों की ही तरह, बाहुबली की मूर्तियां बनीं, मन्दिर बने, और महावीर के समस्त अनुयायियों ने निर्विवाद रूप से बाहुबली की प्रतिष्ठा, पूजा और अर्चना को स्वीकार कर लिया। वे भी जन-जन के आराध्य हो गये। देश में सबसे बड़ी मूर्ति उन्हीं की बनी। - एक वर्ष का निश्चल ध्यान बाहुबली के व्यक्तित्व का सबसे चमकदार पहलू था। उसे रेखांकित करने के लिये उनकी प्रतिमा पर, शरीर से लिपटी लताओं का अंकन ही सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीक हो सकता था। हमारे आस्थावान कलाकारों ने उनके लिये वही सशक्त प्रतीक सनिश्चित किया। "तन से लिपटी बेल" बाहुबली की पहिचान बन गई। माधवी लता को
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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