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________________ २८२ तीर्थकर पार्श्वनाथ के अनुसार हविष्क सं. ५८, अन्य विद्वानों के अनुसार १३६ या १०२ ई. की मूर्ति है। सिंहासन के सिंह भीतर की ओर गर्दन घुमाये हुए हैं। चरणपीठिका के मध्य धर्म चक्र, दोनों ओर अंजलि मुद्रा में एक गणधर भूमि पर बैठे हैं। बांयी ओर साध्वी एवं श्राविकाएं तथा दांयी ओर अर्धपालक एवं श्रावकगण दर्शाये गये हैं। मूल प्रतिमा का शीश अनुपलब्ध है। बाद में जब इसका शीश युक्त सर्पफण का भाग मिला सर्प फण में भी एक उड़ता हुआ विद्याधर दृष्टिगोचर होता है। इस मूर्ति की विशेषता यह है कि मूल प्रतिमा के पीछे वृक्ष का सुन्दर अंकन है (चित्र ५)। मथुरा की कला में मूर्तियों के पीछे वृक्ष, स्तम्भ, रीढ़ की हड्डी दर्शाने की परम्परा कुषाण मूर्तियों के देखने से ज्ञात होती है। पार्श्व लेखयुक्त प्रतिमा __मूल मूर्ति पर्याप्त खंडित है। वह बैठी हुयी मूर्ति रही होगी किन्तु इसमें जो चरणचौकी पर लेख खुदा है उसमें “..... अर्हतो पार्श्वस्थ प्रतिमा...." सुरक्षित है। अत: यह पार्श्व प्रतिमा का अप्रतिमप्रमाण है। लिपि के अनुसार यह प्रतिमा लगभग द्वितीय शती की है (चित्र ६)। सर्वतोभद्र सर्वतोभद्र या चौमुखी मूर्तियों पर भी भगवान् पार्श्वनाथ को सर्प फणों से सहज ही पहचाना जा सकता है। यों तो कई प्रतिमाओं में इन्हें दर्शाया पाते हैं किन्तु एक प्रतिमा का यहां उल्लेख किया जा रहा है । इस चौमुखी पर सम्वत् १५ + ७८ = ९३ ई. का पार्श्वनाथ का भावपूर्ण अंकन है (चित्र ७)। यह प्रतिमा लंदन में आयोजित प्रदर्शनी में गयी भी थी। जैन कथानक के मध्य पार्श्व ___एक पटिया मथुरा के बलुवे पत्थर की है। इस पर लेख ९२+७८=१७० ई. का है (चित्र ८)। पटिया के ऊपरी भाग पर पट्टी के मध्य स्तूप है, तदुपरांत सप्त फणों के नीचे पार्श्वनाथ और अंत में महावीर अंतिम तीर्थंकर
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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