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माथुरी शिल्प में दुर्लभ पावकन
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रहे होंगे। स्तूप के बांयी ओर दो तीर्थंकर हैं, इनमें एक तो आदिनाथ एवं दूसरे नेमिनाथ हो सकते हैं क्योंकि नीचे कण्ह श्रमण भी खुदा है। है। ये फलक मथुरा का है और निकट ही आगरा शौरीपुर नेमिनाथ का जन्म स्थान अन्य कई नेमिनाथ की मूर्तियों पर बलराम व कृष्ण का अंकन देखा जा सकता है। यहां पर भी कण्ह या कृष्ण श्रमण के रूप में उपदेश दे रहे हैं । सामने . वृक्ष के नीचे वस्त्राभूषणों से सुशोभित हाथ जोड़े बलराम ओर दूसरी ओर कोई जैन देवी तथा बलराम के बगल में श्रावक गण दिखाये गये हैं । यह सम्भव है कि नेमिनाथ से सम्बन्धित यह कथानक पट्ट रहा हो, जिस पर पार्श्वनाथ सुशोभित हैं ।
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देवविनिर्मित पार्थ्याकंन
पार्श्व की ध्यानमग्नं सम्वत् १०३६-५७ ९७९ ई. कार्तिक एकादशी को इस प्रतिमा को श्री श्वेताम्बर मूल संघ के द्वारा स्थापित करवाया गया था। लेख में इस प्रतिमा को देवविनिर्मित प्रतिमा प्रतिस्थापिता' उत्कीर्ण पाते हैं। इस प्रतिमा के दोनों बंगलों के बीच में सर्प की कुण्डली बनी हुई है* * (चित्र ९) । मूल मूर्ति के ऊपर सर्प का फनाटोक नहीं दृष्टिगोचर होता है । सम्भव है टूट गया हो या न भी बनवाया गया हो। प्रतिमा ललछोह रंग के बलुवे पत्थर की है। आसन पीठिका पर रत्न पट्टियों के भीतर पत्रावली एवं पुष्पों का अलंकरण है। इसी रत्न पट्टियों के बीच देवनागरी में लेख उत्कीर्ण किया गया है। मथुरा कंकाली टीले में कभी 'जैन स्तूप और मंदिर था' जिसका उत्खनन सामग्री एवं "देवनिर्मित थूव" लेख से भी ज्ञात होता है। इसका उत्खनन १८८८ से १८९९ के मध्य प्रो. ए. फ्यूहरर ने करवाया जिसके फलस्वरूप विपुल कला कृतियां इस स्थान से निकाली गयीं। चूंकि कला पारखी फ्यूहरर महोदय लखनऊ संग्रहालय के संग्रहालयाध्यक्ष थे अतः सारी कला संपदा लखनऊ संग्रहालय ले आये जिसके कारण यह संग्रहालय अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति का हो गया। जब यहां मथुरा में संग्रहालय स्थापित हो गया तो कंकाली टीले की कला कृतियां यहीं रहने लगीं ।
इह वर्णित जैन कला रत्न उसी अक्षय कोष के दैदीप्यमान रत्न हैं ।
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