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चतुर्थ सत्र
दि. २०.१०.९७ (प्रातः) परमपूज्य उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज एवं परमपूज्य मुनि श्री 108 वैराग्य सागर जी महाराज के सानिध्य में ब्र बहिन सीमा जैन एवं ब्र० बहिन मीना जी के द्वारा भगवान् ऋषभदेव की स्तुति स्वरूप मंगलाचरण के पश्चात् डॉ. मारुति नन्दन तिवारी (बनारस) की अध्यक्षता एवं डॉ. अशोक कुमार जैन (लाडनूं) के संयोजकत्व में प्रारम्भ संगोष्ठी के चतुर्थ सत्र में डॉ. श्री रंजनसृरिदेव ने जिनसेन के प्रति राजा अमोघवर्ष, के सम्मानभाव को राज्य सत्ता पर सारस्वत सत्ता की विजय बताया। मरुभूति जीव का पार्श्व के रूप में उन्नयन ही पाश्र्वाभ्युदय हैं। जैन परम्परा में दूत परम्परा सम्बन्धी साहित्य एवं अभ्युदय मूलक साहित्य सृजन पार्वाभ्युदय से ही प्रारम्भ हुआ है। पाश्र्वाभ्युदय का काव्य सौष्ठव विशिष्ट है। आचार्य जिनसेन को कालिदास के समकक्ष मानकर डॉ. कुन्दनलाल जैन (दिल्ली) ने 'पार्श्वप्रभु की कुछ कलापूर्ण ऐतिहासिक प्रतिमायें' विषय पर आलेखपाठ के माध्यम से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की विभिन्न प्रतिमाओं के माध्यम से ऐतिहासिकता सिद्ध की। उन्होंने आधार पट्ट, स्तूप एवं विभिन्न संग्रहालयों में स्थित मूर्तियों का उल्लेख किया। तृतीय आलेख डॉ. रमेशचन्द जैन (बिजनौर) ने 'तीर्थंकर पार्श्वनाथ परम्परा के उत्तरवर्ती साधु पासत्थ और. उनका स्वरूप' आलेख के माध्यम से बताया कि मथुरा से प्राप्त मूर्तियां दिगम्बर है तथा उन पर लेख श्वेताम्बर परम्परा का है। इससे सिद्ध होता है कि पहले श्वेताम्बर भी दिगम्बर मूर्ति को मानते थे। मथुरा की मूर्तियों एवं साहित्य से जैन धर्म के लोकव्यापी जैनधर्म का स्वरूप पता चलता है। उन्होंने उपाध्याय श्री से कंकाली टीला को विकसित करवाने हेतु निवेदन किया। पार्श्वस्थ शब्द भ० पार्श्व की परम्परा के साधुओं के लिए प्रयोग किया जाने लगा। किन्तु 'पासत्थ' शब्द दोषयुक्त परम्परा के साधुओं के लिए प्रयोग किया जाता था। पार्खापत्त्यीय शब्द भ. पार्श्व के शिष्यों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए किया जाता था। चतुर्थ आलेख डॉ. शुभचंद जैन (मैसूर)