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तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियां :
लक्षण और वैशिष्ट्य
- डा. मारुतिनन्दन तिवारी
पार्श्वनाथ वर्तमान अवसर्पिणी के २३वें तीर्थंकर और ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में मान्य हैं.। संमभवत: जैन धर्म की स्थापना पार्श्वनाथ द्वारा की गयी और महावीर ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रह) में ब्रह्मचर्य को जोड़कर पंचमहाव्रतों का उपदेश दिया। भारतीय कला में नि:सन्देह इसी कारण महावीर की तुलना में पार्श्वनाथ की अधिक मूर्तियां उकेरी गयीं और उनमें लक्षणपरक वैविध्य भी अधिक मिलता है। पार्श्वनाथ के स्वतन्त्र मन्दिर भी अधिक हैं। प्रस्तुत लेख में पार्श्वनाथ की मूर्तियों के विकास को उनके लक्षणों एवं वैशिष्ट्य के सन्दर्भ में निरूपित किया गया है। . . पार्श्वनाथ का लांछन सर्प है जिसे मूर्तियों में देवगढ़ एवं दक्षिण भारत • के कुछ उदाहरणों के अतिरिक्त सामान्यत: पीठिका पर नहीं दिखाया गया है। इसके स्थान पर पासनाहचरिउ (पद्मकीर्तिकृत १०७७ ई.), उत्तर-पुराण (गुणभद्रकृत - नवीं शती ई.)२ एवं त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र हिमचन्द्रकृत-१२वी शती ई.)३ जैसे ग्रन्थों में वर्णित कथा के अनुरूप पार्श्वनाथ के शीर्षभाग में सात सर्पफणों के छत्र के अंकन की परम्परा मूर्तियों में मिलती है, जो कभी-कभी तीन और ग्यारह सर्पफणों के रूप में भी दृष्टव्य है। यहां उल्लेखनीय है, कि पउमचरिय (विमलसूरिकृत-४७३ ई.) में पार्श्वनाथ के सिर पर धरणेन्द्र नाग के फणों का प्रारम्भिक सन्दर्भ मिलता है जब कि आगम ग्रन्थों में इसका अनुल्लेख है। दूसरी और
* विभागाध्यक्ष, कला-इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी