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शिल्पकला एवं स्थापत्य के विविध आयामों में भगवान पार्श्वनाथ
- डॉ. सुश्री सीमा जैन*
भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा श्रमण परम्परा में भगवान् पार्श्वनाथ का ऐतिहासिक एवं गौरवशाली महत्व रहा है। जैन श्रमण परम्परा के कर्मभूमि काल के २३वें तीर्थंकर के रूप में एवं सम्पूर्ण राष्ट्र के जनमानस में विघ्नहर, चिन्तामणी पार्श्वनाथ भगवान् की मान्यता की स्वर्णिम पृष्ठभूमि प्रत्येक चिंतनशील एवं आस्थावान प्राणी को अचंभित करके प्रेरणास्पद अनुकरण करने के लिये अनायास अवसर प्रदान करती है।
भगवान पार्श्वनाथ ने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन नहीं किया अपितु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से चली आ रही अविच्छिन्न एवं अनवरत् परम्परा को, जो कि २२ वे तीर्थकर भगवान् नेमिनाथ के शासन काल तक चली, नवीनीकृत स्वरूप “चातुर्याम" के रूप में प्रतिष्ठित किया था।
ऐतिहासिक संदर्भो से प्रतिपादित होता है कि भगवान् बुद्ध के माता-पिता पार्श्वनाथ के “पावापत्य" के अनुयायी थे। कल्पसूत्र में उल्लेख आया है कि महावीर ने ठीक इसी मार्ग का अनुसरण किया जिसका उपदेश उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने दिया था।
भगवान् पार्श्वनाथ का जीवन चरित्र अपनी अनुपम विशेषताओं के कारण विशेष उल्लेखनीय रहा है। भगवान् पार्श्वनाथ ने लोकनायक के रूप में काफी बड़ी सीमा तक जन मानस को अपने साथ स्पंदित किया था। जिसके कारण आज तक बिहार, बंगाल, उड़ीसा एवं अन्य पूर्वोत्तर भारत में जैन एवं जैनेत्तर पार्श्वनाथ को अपना कुलदेवता मानते हैं, उनके श्री
• ललितपुर