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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्वाभ्युदय' काव्य
२४३ ___ काव्यकार आचार्य जिनसेन ने अर्थव्यंजना के लिए ही भाषिक प्रयोग वैचित्र्य से काम लिया है। 'काव्यावतर' में वर्णित कथा-प्रसंग के आधार पर यदि आचार्य जिनसेन को कालिदास का समकालीन माना जाय तो, यह कहना समीचीन होगा कि भारतीय सभ्यता के इतिहास के जिस युग में इस देश की विशिष्ट संस्कृति सर्वाधिक विकसित हुई थी, उसी युग में 'पार्वाभ्युदय' के रचयिता विद्यमान थे। वह कालिदास की तरह भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के कवि थे। इस युग की सभ्यता और संस्कृति साहित्य में ही नहीं; अपितु ललित, वास्तु, स्थापत्य आदि विभिन्न कलाओं में परिपूर्णता के साथ व्यक्त हुई है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय) इस युग के श्रेष्ठ कवि थे और इन्होंने समय की बाह्य वास्तविकता, अर्थात् सभ्यता का चित्रण तो किया ही है, साथ ही उसकी अन्तरंग चेतना का भी जिसे हम संस्कृति कह सकते हैं, मनोहारी समाहार प्रस्तुत किया है।
- 'पार्वाभ्युदय' 'भाषा की प्रौढता की दृष्टि से अद्वितीय काव्य है। यह और बात है कि आचार्य जिनसेन के शास्त्रज्ञ पाण्डित ने उनके कवि को अवश्य ही परास्त किया है। फलत: इसमें पाण्डित्य के अनुपात में कवित्व कम पड़ गया है। कालिदास की अवमानना के उद्देश्य से लिखा गया होने पर भी यह काव्य उलटे ही कालिदास की काव्यात्मक वर्चस्विता का विस्तारक बन गया है।
संदर्भ .
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१. . विशेष दृष्टव्य : “तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा” डॉ. नेमिचन्द्र
शास्त्री, पृ. ३३७. .. २.. विशेष दृष्टव्य : “संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान", डॉ.
नेमिचन्द्र शास्त्री, (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७१) पृ. २३७.