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________________ २४२ तीर्थंकर पार्श्वनाथ कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है, किन्तु कैलास पर्वत और महाकाल-वन में जिन मन्दिरों और जिन प्रतिमाओं का वर्णन अवश्य हुआ है। जगह-जगह सूक्तियों का समावेश काव्य को कलावरेण्य बनाता है। इस प्रसंग में 'रम्यस्थानं त्यजति न मनो दुर्विधान प्रतीहि' (१.७४); 'पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' (२.६५); 'कामोऽसह्यंघटयतितरा विप्रलम्भावतारम्' (४.३७) आदि भावगर्भ सूक्तियाँ दृष्टव्य हैं। शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य जिनसेन का भाषा पर असाधारण अधिकार है। इनके द्वारा अप्रयुक्त क्रियापदों का पदे-पदे प्रयोग ततोऽधिक शब्द-चमत्कार उत्पन्न करता है। बड़े-बड़े वैयाकरणों की तो परीक्षा ही पाश्र्वाभ्युदय' में सम्भव हुई है। इस सन्दर्भ में आचार्य कवि श्री के द्वारा प्रयुक्त 'ही', ('हि' के लिए); 'स्फावयन्' (=वर्धयन्); 'प्रचिकटयिषुः' (=प्रकटयितुमिच्छु:); 'वित्तानिघ्नः' (=वित्ताधीन:); ‘मक्षु' (=शीघेण); 'सिषिधुषः' (=सिद्धा देवताविशेषाः); 'पेणीयस्व' (अत्यर्थं पानं विधेहि); 'रवेन' (=गगनेन); 'प्रोथिनी' (=लम्बोष्ठी); 'मुरुण्ड:' (=वत्सराजोनरेन्द्रः); 'हेपयन्त्या:' (=विडम्बयन्त्याः ); "निर्दि धक्षेत्' (निर्दग्धुमिच्छेत); 'वैजयार्थम्' (=विजयस्यार्थस्येदं); 'जिगलिषु' (=गलितुमिच्छु);, शंफलान्पम्फलीति' (=शं सुखमेव फलं येषां तान् भृशं फलति); गहक्तमाना:' (= जुगुप्सावन्तः); 'जाघटीति' (=भृशं घटते) आदि नाति प्रचलित शब्द विचारणीय हैं। 'पार्वाभ्युदय' आचार्य जिनसेन का अवश्य ही एक ऐसा पार्यन्तिक काव्य है, जिसका अध्ययन-अनुशीलन कभी अशेष नहीं होगा। काव्यात्मक चमत्कार, सौन्दर्य-बोध, बिम्बविधान एवं रसानुभूति के विविध उपादान 'पार्वाभ्युदय' में विद्यमान हैं। निबन्धनपटुता, भावानुभूति की तीव्रता, वस्तुविन्यास की सतर्कता, विलास वैभव, प्रकृति-चित्रण आदि साहित्यिक आयामों की सघनता के साथ ही भोगवाद पर अंकुशारोपण जैसी वर्ण्य वस्तु का विन्यास 'पार्वाभ्युदय' की काव्यप्रौढि को सातिशय चारुता प्रदान करता है।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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