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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है, किन्तु कैलास पर्वत और महाकाल-वन में जिन मन्दिरों और जिन प्रतिमाओं का वर्णन अवश्य हुआ है। जगह-जगह सूक्तियों का समावेश काव्य को कलावरेण्य बनाता है। इस प्रसंग में
'रम्यस्थानं त्यजति न मनो दुर्विधान प्रतीहि' (१.७४); 'पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' (२.६५); 'कामोऽसह्यंघटयतितरा विप्रलम्भावतारम्' (४.३७) आदि भावगर्भ सूक्तियाँ दृष्टव्य हैं।
शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य जिनसेन का भाषा पर असाधारण अधिकार है। इनके द्वारा अप्रयुक्त क्रियापदों का पदे-पदे प्रयोग ततोऽधिक शब्द-चमत्कार उत्पन्न करता है। बड़े-बड़े वैयाकरणों की तो परीक्षा ही पाश्र्वाभ्युदय' में सम्भव हुई है। इस सन्दर्भ में आचार्य कवि श्री के द्वारा प्रयुक्त 'ही', ('हि' के लिए); 'स्फावयन्' (=वर्धयन्); 'प्रचिकटयिषुः' (=प्रकटयितुमिच्छु:); 'वित्तानिघ्नः' (=वित्ताधीन:); ‘मक्षु' (=शीघेण); 'सिषिधुषः' (=सिद्धा देवताविशेषाः); 'पेणीयस्व' (अत्यर्थं पानं विधेहि); 'रवेन' (=गगनेन); 'प्रोथिनी' (=लम्बोष्ठी); 'मुरुण्ड:' (=वत्सराजोनरेन्द्रः); 'हेपयन्त्या:' (=विडम्बयन्त्याः ); "निर्दि धक्षेत्' (निर्दग्धुमिच्छेत); 'वैजयार्थम्' (=विजयस्यार्थस्येदं); 'जिगलिषु' (=गलितुमिच्छु);, शंफलान्पम्फलीति' (=शं सुखमेव फलं येषां तान् भृशं फलति); गहक्तमाना:' (= जुगुप्सावन्तः); 'जाघटीति' (=भृशं घटते) आदि नाति प्रचलित शब्द विचारणीय हैं।
'पार्वाभ्युदय' आचार्य जिनसेन का अवश्य ही एक ऐसा पार्यन्तिक काव्य है, जिसका अध्ययन-अनुशीलन कभी अशेष नहीं होगा। काव्यात्मक चमत्कार, सौन्दर्य-बोध, बिम्बविधान एवं रसानुभूति के विविध उपादान 'पार्वाभ्युदय' में विद्यमान हैं। निबन्धनपटुता, भावानुभूति की तीव्रता, वस्तुविन्यास की सतर्कता, विलास वैभव, प्रकृति-चित्रण आदि साहित्यिक आयामों की सघनता के साथ ही भोगवाद पर अंकुशारोपण जैसी वर्ण्य वस्तु का विन्यास 'पार्वाभ्युदय' की काव्यप्रौढि को सातिशय चारुता प्रदान करता है।