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________________ आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका पार्श्वभ्युदय' काव्य २४१ सन्देश काव्यों या दूतकाव्यों में सामान्यतया विप्रलम्भ श्रृंगार तथा विरह-वेदना की पृष्ठभूमि रहती है। परन्तु जैन कवियों ने सन्देशकाव्यों में श्रृंगार से शान्त की और प्रस्थिति उपन्यस्त कर एतद्विध काव्य-परम्परा को नई दिशा प्रदान की है। त्याग और संयम को जीवन का सम्बल समझने वाले जैन कवियों ने श्रृंगारचेतनामूलक काव्य-विधा में भारत के गौरवमय इतिहास तथा उत्कृष्टतर संस्कृति के महाघ तत्वों का समावेश किया है। संदेशमूलक काव्यों में तीर्थंकर जैसे शलाकापुरुषों के जीवनवृत्तों का परिगुम्फन किया है। 'मेघदूत' के श्लोकों के चरणों पर आश्रित समस्या पूर्ति के बहुकोणीय प्रकारों का प्रारम्भ कवि श्री जिनसेन द्वितीय के 'पार्वाभ्युदय' से ही होता है। यही नहीं, जैन काव्य-साहित्य में दूतकाव्य की परम्परा का प्रवर्तन भी 'पार्वाभ्युदय' से ही हुआ है। इस दृष्टि से इस काव्य का ऐतिहासिक महत्व - 'पाश्र्वाभ्युदय' से तो 'अभ्युदय' - नामान्त काव्यों की परम्परा ही प्रचलित हो गई। इस सन्दर्भ में 'धर्मशर्माभ्युदय' (हरिश्चन्द्र : तेरहवीं शती); 'धर्माभ्युदय' (उदयप्रभ सूरि : तेरहवीं शती) 'कप्फिणाभ्युदय' (शिव स्वामी : नवम शती); 'यादवाभ्युदय' वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक : तेरहवीं शती); 'भरतेश्वराभ्युदय' (आशाधर : तेरहवीं शती) आदि काव्य उल्लेख्य .. मेघदूत' की प्रभावान्विति से आविष्ट होने पर भी 'पार्वाभ्युदय' की काव्यभाषा, शैली की दृष्टि से सरल नहीं; अपितु जटिल है। फलत: कथावस्तु सहसा पाठकों को हृदयंगम नहीं होती। समस्यापूर्ति के रूप में गुम्फन होने के कारण तथा कथावस्तु के बलात् संयोजन के कारण भी मूल के अर्थ बोध में विपर्यस्तता की अनुभूति होती है। मूलत: पार्श्वभ्युदय' प्रतिक्रिया में प्रगति एक कठिन काव्य है। _ 'पार्वाभ्युदय' समस्यापूर्तिपरक काव्य होने पर भी इसमें कविकृत अभिनव भाव-योजना अतिशय मनोरम है। किन्तु, संदेश-कथन की रमणीयता मेघदूत' जैसी नहीं है। इस में जैन धर्म के किसी सिद्धान्त का
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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