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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
तस्यास्तीरे मुहुरुपलवान्नूर्ध्वशोषं प्रशुष्यन् - नुब्दाहुस्सन्परुसमनसः पञ्चतापं तपो यः । कुर्वन्नस्म स्मरति जडधीस्तापसानां मनोज्ञां स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु । । ' ( सर्ग १ : श्लो. ३)
मन्दबुद्धि कमठ उस सिंधु नदी के तीर पर बार-बार पत्थरों को पकड़ता था। ऊपर से पड़ने वाली तीव्र धूप से उसके शरीर के अवयव सूख रहे थे। ऊपर हाथ उठाये हुए वह कठिन चिन्तनपूर्वक पंचाग्नि तापने का तप कर रहा था। शीतल छाया वाले पेड़ों से युक्त रामगिरि नामक पर्वत पर वास करता हुआ वह तपस्वियों के लिए मनोरम स्थान का स्मरण तक नहीं करता था ।
त्वां ध्यायन्त्या विरहशयनाभोगमुक्ताखिलाङग्याः
शंके तस्या मृदुतलमवष्टभ्य गण्डोपधानम् ।
'हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालकत्वादिन्दोर्दैन्यं त्वदुपसरणक्लिष्टकान्तिर्विभर्ति ।।' (सर्ग ३ : श्लो. २७)
विरह की शय्या पर जिसका सारी शरीर निढाल पड़ा है, ऐसी वसुन्धरा तुम्हारा ध्यान करती हुई अपने कपोलतल में कोमल तकिया लिए लेटी होगी; संस्कार के अभाव में लम्बे पड़े अपने केशों में आधे छिपे मुख को हाथ पर रखे हुए होगी, उसका वह मुख मेघ से आधे ढके क्षीण कान्ति वाले चन्द्रमा की भाँति शोचनीय हो गया होगा, ऐसी मेरी आशंका है 1
प्रौढ काव्यभाषा में लिखित प्रस्तुत काव्य मेघदूत के समान ही मन्दाक्रान्ता छन्द में आबद्ध है । तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्वभव के शत्रु शम्बर या कमठ द्वारा उपस्थापित कठोर कायक्लेशों तथा सम्भोगश्रंगार से संवलित प्रलोभनों का अतिशय प्रीतिकर और रुचिरतर वर्णन इस काव्य का शैल्पिक वैशिष्टय है ।
मेघदूत जैसे श्रृंगारकाव्य को शान्तरस के काव्य में परिणत करना कवि श्री जिनसेन की. असाधारण कवित्व - शक्ति को इंगित करता है। संस्कृत के