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________________ आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्वाभ्युदय' काव्य २३७ पादवेष्टित का तृतीय प्रकार निद्रासंगादुपहितरतेर्गाढमाश्लेषवृन्ते - र्लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु। . विश्लेषस्स्याद्विहितरुदितैराधिजैराशुबोधैः कामोऽ सह्यं घटयतितरां विप्रलम्भावतारम् । । (सर्ग ४: श्लो.३७) प्रस्तुत श्लोक में द्वितीय चरण मेघदूत' के श्लोक का है। इस प्रकार, कवि श्री जिनसेन ने पादवेष्टित, पादाभ्रवेष्टित और पादान्तरितावेष्टित के रूप - वैभिन्नय की अवतारणा द्वारा 'पार्वाभ्युदय' काव्य के रचना शिल्प में चमत्कार-वैचित्र्य उत्पन्न कर अपनी अद्भुत काव्यप्रौढिता का आह्लादक परिचय दिया है। . . . . आचार्य जिनसेन राजा अमोधवर्ष के गुरु थे, यह काव्य के प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या की पुष्पिका में उल्लिखित है: 'इत्यमोघवर्षपरमेश्वर-परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्वाभ्युदये...'!. प्रसिद्ध जैन विद्वान श्री पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्र कूटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था। इसने लगातार तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के कारण विपुल यश अर्जित किया था। ऐतिहासिकों का कहना है कि इस राजा ने 'कविराजमार्ग' नामक अलंकार-ग्रन्थ कन्नड-भाषा में लिखा था। इसके अतिरिक्त, 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' नामक एक लघुकाव्य की रचना संस्कृत में की थी। यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था। ___ 'पार्वाभ्युदय' के अन्त में सुबोधिका-टीका, जिसकी रचना आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कर्ता पण्डिताचार्य योगिराट की ओर से 'काव्यावतर' उपन्यस्त हुआ है, जिससे 'पाश्र्वाभ्युदय' काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना मिलती है:
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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