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________________ २३६ द्वयन्तरितार्धवेष्टित का द्वितीय प्रकार अन्तस्तापं प्रपिशुनयता स्वकवोष्णेन भूयो निःश्वासेनाधर किसलयक्लेशिना विक्षिपत्नी । शुद्धस्नानात्परुषमलकं नूनमागण्डलम्बं विश्लिष्टं वा हरिणचरितं लाञ्छनं तन्मुखेन्दोः ।। एकान्तरितावेष्टित का द्वितीय प्रकार इस श्लोक के द्वितीय-तृतीय चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक के द्वितीय तृतीय चरणों का विन्यास हुआ है । तीर्थंकर पार्श्वनाथ (सर्ग ३ : श्लोक ४६ ) चित्रन्यस्तामिव सवपुषं मन्मथमावस्था माधिक्षमां विरहशयने सन्निषण्णैक पांवम्। तापापास्त्यै हृदयानिहितां हारयष्टिं दधानां प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशोः । । (सर्ग ३ : श्लो. ४४ ) पादवेष्टित का द्वितीय प्रकार इस श्लोक के द्वितीय-चतुर्थ चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक के द्वितीय - चतुर्थ चरणों का विनियोग हुआ है । मामाकाशप्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतो रुन्तिष्ठासुं त्वदुपगमन प्रत्ययात्स्वप्नजातात्ं । सख्यो दृष्ट्वा सकरुणमृदुव्यावहासिं दधाना : कामोन्मुग्धाः स्मरयितुमहो संश्रयन्ते विबुद्धान् ।। - (सर्ग ४ : श्लो. ३६) इसश्लोकमें प्रथमचरण 'मेघदूत' के श्लोक का है । इसलिए इसकी आख्या पूर्वार्ध पादवेष्टित है।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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