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तीर्थंकर पार्श्वनाथ एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में आया और उसने स्वरचित 'मेघदूत' नामक काव्य को अनेक राजाओं के बीच, बड़े गर्व से, उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीर्थ्य आचार्य विनयसेन के आग्रहवश उक्त कवि कालिदास के गर्व-शमन के उद्देश्य से सभा के समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन पड़ा हैं। इस बात पर कालिदास बहुत रुष्ट हुआ और जिनसेन से कहा - 'यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति।' इस पर जिनसेन ने कहा - ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुका हूँ, किन्तु है वह यहां से दूर किसी दूसरे नगर में। यदि आठ दिनों की अवधि मिले तो उसे यहाँ लाकर सुना सकता हूं। __आचार्य जिनसेन को राजसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि दी गई और उन्होंने इसी बीच तीर्थंकर पार्श्वनाथ की कथा के आधार पर 'मेघदूत' की पंक्तियों से आवेष्टित करके 'पार्वाभ्युदय' जैसी महार्घ काव्य-रचना कर डाली और उसे सभा के समक्ष उपस्थित कर कवि कालिदास को परास्त कर दिया।
पार्वाभ्युदय' का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है: भरतक्षेत्र के सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नाम का एक नगर था। वहाँ अरविन्द नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूति नाम के दो मन्त्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुदरी के पुत्र थे। कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रु-राजा वज्रवीर्य के विजय के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया। इस बीच मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुणा की सहायता से भ्रातृ पत्नी वसुन्धरा को अंगीकृत कर लिया। राजा अरविन्द जब शत्रु विजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना मिली। राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर-निर्वासन की आज्ञा घोषित कराई, क्योंकि राजा ने दुर्वृत्त