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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्वाभ्युदय' काव्य
२३३ जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५ से ८७७ ई.) के समकालीन थे। राजा अमोघवर्ष की राजधानी मान्यखेट में उस समय विद्वानों का अच्छा समागम था।
'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के सन्दर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्यों कि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी पहनी ही महीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरु आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थ षट्खण्डागम' की अधूरी ‘जयधवला' टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन-शैली में पूरा किया था और इनके अधूरे ‘महापुराण' या 'आदिपुराण' को (कुल ४७ पर्व), जो 'महाभारत' से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था। गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश उत्तरपुराण नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार. वीरसेन के एक और शिष्य थे -विनय सेन।। ___आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की हैं। इस संदर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति 'पार्वाभ्युदय' उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अन्तिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूटवंशीय नरंपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई। श्लोक इस प्रकार हैं। इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेघं बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठातादाशाशाङ्क : भुवनमवतु देव: सर्वदाऽमोघवर्षः ।। श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजभुंग : श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् । तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम् ।। ___ अर्थात्, प्रस्तुत 'पार्वाभ्युदय' काव्य कालिदास कवि के अनेक गुणों से युक्त निर्दोष काव्य 'मेघदूत' को आवेष्टित करके रचा गया है। मेघसन्देश-विषयक अन्य काव्य को निष्प्रभ करने वाला यह काव्य यावच्चन्द्र. विद्यमान रहे। और, राजा अमोघवर्ष सदा जगद्रक्षक बने रहें। यहां देव: