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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य
- विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरि देव*
जैन काव्यों की महनीय परम्परा में, आचार्य जिनसेन (द्वितीय) द्वारा प्रणीत 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य की पाक्तेयता सर्वविदित है। आचार्य जिनसेन (द्वितीय), आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री की ऐतिहासिक कृति 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' ( खण्ड २ ) के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थे। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है'। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभां और अपार कल्पना-शक्ति की महिमा से ‘भगवत् जिनसेनाचार्य’ कहे जाते थे । यह मूलग्रन्थों के साथ ही टीका ग्रन्थों के भी रचयिता थे । इनके द्वारा रचित चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जयधवला टीका का शेष भाग, 'आदिपुराण' या 'महापुराण', 'पार्श्वाभ्युदय' और 'वर्द्धमान पुराण' । इनमें 'वर्द्धमान पुराण', या 'वर्द्धमान चरित' उपलब्ध नहीं है ।
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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं - नवीं शती में वर्तमान थे यह काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार, आचारशास्त्र, कर्म सिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुश्रुत विद्वान थे । यह अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धान्त के प्रख्यात ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' तथा 'कसायपाहुड' के टीकाकार आचार्य वीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई.) इनके गुरु थे क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा सम्पादित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवला टीका के कर्त्ता श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कर्त्ता श्री गुणभद्र के गुरु थे और राष्ट्रकूट- नरेश
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* पटना