________________
२३४
तीर्थंकर पार्श्वनाथ
अमोघवर्ष' शब्द मेघ का वाचक भी है। इस पक्ष में इसका अर्थ होगा - सफलवृष्टि करने वाला मेघ'। ___ दूसरे श्लोक का अर्थ है - श्री वीरसेन मुनि के पद-पंकज पर मंडराने वाले भंग-स्वरूप श्रेष्ठ श्रीमान् विनयसेन मुनि की प्रेरणा से मुनिश्रेष्ठ जिनसेन ने 'मेघदूत' को परिवेष्टित करके इस 'पार्वाभ्युदय' काव्य की रचना की।
पूर्वोक्त महामुनि आचार्य वीरसेन, विनयसेन और जिनसेन नामक मुनिपुंगवों के गुरु थे। विनयसेन की प्रार्थना पर ही आचार्य जिनसेन ने कालिदास के सम्रग 'मेघदूत' को समस्यापूर्ति के द्वारा आवेष्टित कर पार्वाभ्युदय की रचना की। चार सर्गों में पल्लवित इस काव्य में कुल ३६४ (प्रथम:११८; द्वितीय: ११८; तृतीय: ५७; चतुर्थः ७१) श्लोक हैं। इसका प्रत्येक श्लोक मेघदूत' के क्रम से, श्लोकं के चतुर्थांश या अर्द्धाश को समस्या के रूप में लेकर पूरा किया गया है। समस्यापूर्ति का आवेष्टन तीन रूपों में रखा गया है:
१. पादवेष्टित, २. अर्धवेष्टित और ३. अन्तरितावेष्टित । अन्तरितावेष्टित में भी एकान्तरित और द्वयन्तरित ये दो प्रकार हैं।
प्रथम ‘पादवेष्टित' में, चतुर्थ चरण में मेघदूत' के किसी श्लोक का कोई एक चरण रखा गया है और 'अर्धवष्टित' में किसी 'मेघदत' के किसी श्लोक के दो चरणों का विनियोग तृतीय-चतुर्थ चरणों के रूप में किया गया है। और फिर, 'अन्तरितावेष्टित' में, 'मेघदूत' के श्लोकों को 'पार्वाभ्युदय' के जिस श्लोक में प्रथम और चतुर्थ चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा द्वयन्तरितार्धवष्टित' है तथा जिस श्लोक में प्रथम और तृतीय चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा एकान्तरित' है। इस प्रकार की व्यवस्था का ध्यातव्य वैशिष्टय यह है कि 'मेघदूत' के उद्धत चरणों के प्रचलित अर्थ को विद्वान कवि आचार्य जिनसेन ने अपने स्वतन्त्र कथानक के प्रसंग से जोड़ने में विस्मयकारी विलक्षणता का परिचय दिया है।