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तीर्थकर पार्श्वनाथ ..
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संस्थान के निदेशक डॉ. सुरेशचन्द जैन ने इस अवसर पर संस्थान की स्थापना के संदर्भ में बताया कि श्री बाबू रामस्वरूप जी बरुवासागर की मात्र 600 रुपये की दान राशि से पूज्य सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री ने इसकी स्थापना की थी। विगत 25 वर्ष में 35 ग्रन्थों के प्रकाशन के साथ जैनागम की उल्लेखनीय सेवा की है। संस्थान आज श्री भागचन्द जी (डूंगरगढ़) द्वारा प्रदत्त भवन में संचालित है।
अनन्तर आगन्तुक विद्वानों/विदुषियों का विस्तृत परिचय संगोष्ठी के सहसंयोजक डॉ. जयकुमार जैन (महामंत्री अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद) ने दिया तथा तिलक लगाकर स्वागत श्री सुभाष चन्द जी 'पंकज' एवं श्रीमती पंकज द्वारा किया गया। डॉ. जयप्रकाश जैन (मथुरा) ने कहा कि तिलक इस बात का प्रतीक है कि विद्वानों द्वारा जैनागम की सेवा निरन्तर होती रहे। उन्होंने मथुरा में प. पूज्य श्री जम्बूस्वामी की निर्वाण स्थली एवं उपाध्याय. श्री के सानिध्य में पधारने पर हार्दिक अभिनन्दन किया।
उद्घाटन सत्र के उद्बोधन क्रम में डॉ. प्रेमसुमन जैन (उदयपुर) ने 'प्राकृत साहित्य में पार्श्वनाथ' विषय पर बोलते हुए आ. यतिवृषभ द्वारा रचित 'तिलोयपण्णत्ति' को पार्श्वनाथ के विषय में बताने वाला प्रथम प्राकृत ग्रंथ बताया। तीर्थंकरों के साथ 'नाथ' शब्द जोड़ने वाला एवं चिन्हों की जानकारी देने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। ___अनन्तर इस सत्र के मुख्य अतिथि डॉ. जितेन्द्र कुमार जी ने कहा कि कंकाली टीला (मथुरा) जैन संस्कृति का प्राचीनतम स्थल है जहां से 14 जैन मूर्तियां उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। जैन मूर्ति कला प्राचीनतम भारतीय मूर्तिकला है। चौरासी नामक टीला प्रमुख स्थल है। जहां से पू. जम्बू स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था। आ. सुपार्श्वनाथ जी, भ. नेमिनाथ, भ. महावीर स्वामी के पट्ट शिष्य जम्बू स्वामी से मथुरा का सम्बन्ध है। यहां से भ. सुपार्श्वनाथ एवं भ. पार्श्वनाथ की 14 मूर्तियां मिली हैं। उन्होंने जैन समाज से कंकाली टीला के उद्धार में सहयोग की