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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
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अपेक्षा व्यक्त की। इस टीले की लम्बाई चौड़ाई स्मिथ ने 500 x 300 एवं कनिंघम ने 400 x 300 बतायी है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में श्री नीरज जैन (सतना) ने बताया कि जैन विद्या लुकी छुपी, उपेक्षित रही किन्तु लगभग 50-60 वर्ष पूर्व श्री के. डी. वाजपेयी, दक्षिण में रामचन्द्रन, बनारस में रायकृष्णदास, हीराचन्द ओझा आदि के प्रयासों से 'जैन मूर्तिकला' के विषय में चर्चा प्रारम्भ हुई। उन्होंने आधुनिक संचार साधनों इण्टरनेट आदि पर जैनागम के फीडिंग कराने की अपेक्षा व्यक्त की। उन्होंने गणेशवर्णी संस्थान की इस संगोष्ठी के आयोजन के लिए प्रशंसा की तथा कहा कि संस्थान पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री के विद्रोही व्यक्तित्व को उभारने का प्रयत्न करे ।
सभान्त में परमपूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने आर्शीवचन में कहा कि भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन पक्षों के उद्घाटन की आज आवश्यकता है। कोई भी संस्कृति पुरातत्व, शास्त्र संरक्षण एवं कलाकृतियों के संरक्षण से ही संभव है।
150 स्थानों पर हुए शास्त्रार्थ के उपरान्त जैनत्व सुरक्षित रह पाया । जिनके लिए भा. दि. जैन संघ ने अनेक कष्ट उठाये । दक्षिण की `कलाकृतियां एवं साहित्य की उपलब्धता से जैनत्व की सुरक्षा की प्रेरणा मिलती है। भोजपत्रों पर काँटो से उत्कीर्ण कर जैन ग्रन्थ लिखे गये। किन्तु आज आधुनिक सुविधाओं के होने पर भी हम पिछड़ रहे हैं। स्व. पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री, स्व. पं. फूलचन्द जी शास्त्री, पं. दरबारी लाल जी कोठिया, पं. पन्नालाल जी साहि. के जैन साहित्य के संरक्षण कार्य का उल्लेख किया तथा पू. गणेशवर्णी जी एवं पं. गोपालदास जी वरैया के ज्ञान प्रसार की भावना की सराहना करते हुए विद्वानों एवं समाज से जैन साहित्य एवं संस्कृति की सुरक्षा हेतु आह्वान किया।
सत्र का संचालन डॉ. सुरेशचन्द जैन (वाराणसी) ने किया द्वितीय सत्र ( अपराह्न )
परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं परम पूज्य मुनि श्री वैराग्य सागर जी महाराज के पुनीत सानिध्य में आयोजित