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मराठी साहित्य में तीर्थंकर पार्श्वनाथ जानकारी प्रकाशित की। १९६४ में डॉ. सुभाषचंद्र अक्कोले जी ने 'प्राचीन मराठी जैन साहित्य' पर संशोधन कर पूना विश्वविद्यालय की पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। सोलापुर के जीवराज ग्रंथमाला द्वारा जैनों के प्राचीन मराठी ग्रंथ प्रकाशित होने लगे। यह डॉ. अक्कोले की कोशिशों का फल था। मराठी सारस्वतों का नया दालन खुला' इन शब्दों में जैनेतर प्राचीन मराठी अभ्यासकों ने भी इन प्रयत्नों का स्वागत किया।
जैन समाज व मराठी भाषा ।
उत्तर महाराष्ट्र का जैन समाज मुख्यत: व्यापारी होने से गुजराती व हिन्दी का प्रभाव दिखाई देता है। द. महाराष्ट्र का जैन समाज किसान और कन्नड भाषिक होने के बावजूद महाराष्ट्र से एकरूप है। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई व दूसरे प्रमुख शहरों में बसा जैन-गुजराती-मारवाड़ी व्यापारी वर्ग पूरा व्यवहार मराठी में ही करता है। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा विदर्भ, कोंकण व खानदेश विभागों में बसे शेतवाल, बघेरवाल, कासार, बोगार, पल्लीवाले, नेवा, धाकड़, कंबोज, चतुर्थ व पंचम आदि जैन समाज की उपजातियां मराठी भाषिक हैं। इनकी मराठी अस्मिता को पूर्वसूरीयों के साहित्य का आधार प्राप्त है।६।
• प्राचीन व मध्य युगीन मराठी जैन साहित्य
___ प्राचीन काल में प्राकृत व संस्कृत भाषा में जैन आचार्यों ने विपुल ग्रंथ निर्मित किये। बाद में पुरानी हिंदी, राजस्थानी, गुजराती, तमिल, कन्नड आदि सब भाषाओं में जैन साहित्यिकों ने अमूल्य योगदान दिया। पांचवी, छठी सदी से 'महाराष्ट्री' से मराठी क्रमश: खिलने लगी। व्यवहार भाषा के रूप में उसका प्रयोग होने लगा। डॉ. केतकर कहते हैं - ग्रामीण महाराष्ट्री संस्कृति में जैन समाज ने अपना निश्चित स्थान बनाया है। स्थानिक देवताओं की सूची में जैन देव, जैन महालक्ष्मी ये नाम सम्मिलित