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________________ १३४ - तीर्थंकर पार्श्वनाथ पहले सम्राट चंद्रगुप्त (ई.पूर्व ३री सदी) के काल का माना जाता है। इससे भी पहले जैन धर्म व जैन श्रमणों का अस्तित्व श्रीलंका में माना गया है। जैनों के प्रसिद्ध आचार्य भद्रबाहजी के आगमन से दक्षिण भारत में जैन धर्मप्रसार को बढ़ावा मिला। १३वी-१४वी सदी से दक्षिण में मुसलमानों का आना शुरू हुआ। १६वी सदी में मराठी सत्ता की स्थापना, प्रसार और १८१८ में अंत हुआ। अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता प्रस्थापित हुई। १४वीं सदी तक जैन धर्म प्रसार को प्राप्त उदार राजाश्रय, बाद में नहीं मिला। शायद इसी स्थित्यंतर में प्राचीन जैन साहित्य नष्ट हो गया हो। फिर भी दक्षिण भारत के सांस्कृतिक इतिहास में जैनों का काम अविस्मरणीय. और गौरवास्पद भी है। वैदिक परम्पराओं की कर्मठता का विरोध कर जैन धर्म ने अंत:करण शुद्धि व आत्मविकास को अग्रस्थान दिया। जैन मराठी वाड्.मय का आरंभ . मराठी के जन्म से ही जैनों का महाराष्ट्र से पारिवारिक संबंध है। ८वी व ९वी सदी में 'श्री चामुंडराय करवियले गंगराजे सत्ताले करवियले' ये मराठी अक्षर श्रवणबेळगोळ के गोमटेश्वर की मूर्ति के पैरों तले खुदे मराठी भाषा का पहला लिखित सबूत माना .जाता है। चामुंडराजा व गंगराजा जैन थे तथा उन्हें मराठी भी आती थी यह भी सिद्ध होता है। लेकिन कुंदकंदादि समन्तभद्र जी के अनेक प्राकृत ग्रंथों में मराठी शब्दों का प्रयोग कम ही पाया जाता है। . यद्यपि मराठी को जैन साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है तब भी जैन साहित्य के अस्तित्व की शुभवार्ता १०० साल पहले वर्धा से जिनदास चवडे व जयचंद्र श्रावण ने कुछ जैन ग्रंथ प्रकाशित करके ही दी। किंतु उनके लेखन में संशोधन दृष्टि का अभाव था। जनवरी १९२४ में विविध ज्ञान विस्तार' मासिक पत्रिका ने जैन ग्रंथों के अस्तित्व की प्रथम जानकारी दी। तदनंतर कुछ समय तक यह साहित्य उपेक्षित ही रहा। १९५६ में प्राचीन मराठी के जैन अभ्यासक प्रा. विद्याधर जोहरापूरकर जी ने बाहुबली (कोल्हापुर) से प्रकाशित “सन्मती" मासिक पत्रिका में मराठी जैन ग्रंथों की
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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