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तीर्थकर पार्श्वनाथ
यादव कालीन महानुभाव पंथ पर जैन वाड्.मय अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में ज्ञानेश्वर जी का मराठी वाङ् मय मध्ययुगीन मानना चाहिए। १४५० से १८५० तक के कालखंड में जैन ग्रंथकारों की संख्या ५० से अधिक और छोटे बड़े ग्रंथ १५० से अधिक गिनने चाहिएं। इस कालखंड में भट्टारकों के पीठ तैयार हुए। कालगति पहचानकर मठाधिपतियों ने धर्म प्रसार के लिए मराठी साहित्य निर्मिती को विशेष प्रोत्साहन दिया। नागपुर, कारंजा, पैठण देवगिरी, लातुर, वाशिम, अमरावती, शिरड शहापुर, अंजनगांव-सुरजी, कोल्हापुर, कोगनोळी, नांदणी, महिगांव जैसे खास गांवों में सामाजिक आश्रय से मराठी जैन साहित्य का निर्माण हुआ। इसमें पोथियों व पुराणों का समावेश होता है। इस काल में जैन धर्म शिक्षा धर्मपीठ से ही संभव थी। पुराण, व्रतकथा, रास, खंडकाव्य, स्तोत्र, भारूड, आरती, पद, पोवाडा, लावणी जैसे सभी प्रकार जैन साहित्य में उपलब्ध है। मुख्यत: लोगों को भानेवाले व पसंद आने वाले वाड्.मय ही इस कालखंड में तैयार हुए। . मराठी जैन साहित्य की प्रेरणा गुजरात के “इडर" के भट्टारक पीठ द्वारा मिली। इडर के भट्टारक भुवनकीर्ति जी के शिष्य ब्रम्हजीनदास जी ने १४५१ के आसपास ग्रंथनिर्मिती से मराठी साहित्य निर्मिती के लिए अपना शिष्यवृंद तैयार किया। इनमें शांतिदास, मेघराज, कामराज आदि समाविष्ट हैं। उपलब्ध मराठी जैन वाड् मय १५वी सदी से है। १८ से २० तक कृतियों की जानकारी होने पर भी महज ८ से १० तक कृतियां ही आज प्राप्त हैं।
१६वी सदी के मराठी जैन वाड्.मय में पंडित मेघराज का यशोधर चरित्र महत्वपूर्ण है। इसी कालखंड में पंडित सुरीजन, सुदर्शन व कामराज जैसे महत्वपूर्ण कवि और चरित्रकार भी हुए। १७वीं सदी में चितामणी, गुणनंदी, पुण्यनंदी, अभयकीर्ति, महाकीर्ति, महिचंद गंगादास आदि अनेक ग्रंथकार हुए। १८वीं सदी में 'जिनसागर' विशेष आकर्षित करता है। मानतुंग आचार्य के सुविख्यात 'भक्तांबर' स्तोत्र का जिनसागर कृत मराठी भाषांतर सरस होने से उनकी तुलना पंडित कवियों में की जाती है।१०