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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ क्या बहिद्धा आदाण विरमण में ब्रह्मचर्य महाव्रत का अन्तर्भाव है? चातुर्याम धर्म की व्याख्या के प्रसंग में यह जिज्ञासा होती है कि क्या बहिद्धाआदाण विरमण नामक याम में ब्रह्मचर्य महाव्रत का अन्तर्भाव किया गया है या नहीं? इसका समाधान वर्तमान कालीन अंग और उपांग साहित्य में खोजने पर भी अनुपलब्ध है । टीकाओं में विशेष कर उत्तराध्ययन की टीका में शान्त्याचार्य ने यह माना है कि ब्रह्मचर्य व्रत का अन्तर्भाव बहिद्धाआदाण विरमण में हुआ है । यही कारण है कि उन्होंने चातुर्याम धर्म को ब्रह्मचर्यात्मक पांचवें महाव्रत सहित कहा है । १४. ९६ अब टीकाकार के उक्त कथन को तर्क की कसौटी पर कसना जरूरी है। यदि उक्त कथन सत्य है तो यह मानना पड़ेगा कि भगवान् ऋषभ देव द्वारा उपदिष्ट पांच शिक्षा रूप धर्म को संकुचित कर अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया है और पुनः भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ उपदिष्ट चातुर्याम धर्म का विस्तार कर पंचयाम (पांच महाव्रतों) का उपदेश दिया है। लेकिन ऐसा मानना उचित नहीं है, क्योंकि उत्तराध्ययन के कथन से मेल नहीं खाता है । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि पार्श्वनाथ के शिष्य केशी कुमार ने पांच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया था । १५ वहां यह नहीं कहा गया है कि उन्होंने चातुर्याम का विभाजन कर पंचयाम धर्म माना था। इससे सिद्ध है कि चौथे याम में ब्रह्मचर्य महाव्रत समाविष्ट नहीं है। शौरसेनी साहित्य और चातुर्याम अब यह विचारणीय है कि शौरसेनी साहित्य में क्या चातुर्याम सूचक शब्दों का प्रयोग हुआ है या नहीं? वट्टटकेर के मूलाचार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जिस अर्थ में चातुर्याम धर्म का प्रयोग हुआ है, उसी अर्थ में मूलाचार में “सामायिक संयम” का प्रयोग हुआ है। वहां कहा गया है कि पहिले और अन्तिम तीर्थंकर "छेदोपस्थापना" का उपदेश देते हैं और अजितनाथ के पार्श्वनाथ पर्यन्त तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश देते ✓
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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