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________________ भ. पार्श्वनाथ उपदिष्ट चातुर्याम धर्म भगवान् ने चातुर्याम धर्म का उपदेश क्यों दिया ? उदाहरणार्थ सर्वार्थसिद्धि के कर्ता आचार्य पूज्यपाद ने भ. महावीर को नमस्कार करते हुए कहा है कि तीन गुप्ति, पांच समिति और पांच व्रत रूप तेरह प्रकार के जिस चरित्र का उपदेश भगवान महावीर ने दिया, इसके पूर्व किसी तीर्थंकर में नहीं दिया ।१० समवायांग में प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के पंचयाम की पच्चीस भावनाएं कही गई हैं।११ इस प्रश्न का समाधान उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन “केशी - गौतम संवाद" में उपलब्ध हैं। श्रमण पार्श्वनाथ के महायशस्वी शिष्य केशी कुमार से भगवान् महावीर के महाशस्वी शिष्य गौतम इन्द्रभूति ने कहा कि उक्त दो प्रकार के धर्म देशना का कारण साधु-संघ की बुद्धि है। प्राचीन काल अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ अर्थात मंद बुद्धि के थे। ये साधु धर्म के उपदेशों को सरलता से ग्रहण तो कर लेते थे, लेकिन बुद्धि जड़ होने के कारण उनका कठिनता से शुद्ध रूप में पालन कर पाते थे। अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर के समय के साधु वक्र और जड़ बुद्धि के थे। वक्र बुद्धि के कारण वे.वाद-विवाद और विकल्प जाल में फंस जाते थे। दूसरे शब्दों में महावीर के उपदेशों को ऊहापोह से समझ तो लेते थे लेकिन जड़ बुद्धि होने के कारण उनका पालन निर्दोष रूप से नहीं कर पाते थे। यही कारण है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों ने पांच महाव्रत रूप धर्म का उपदेश दिया था। इसके विपरीत शेष तीर्थंकरों के साधु सरल और प्रज्ञावान होने के कारण साधु-धर्म का सरलता से समझ लेते थे और बुद्धिपूर्वक निर्दोष पालन भी किया करते थे।१२ उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों ने शिष्यों की बुद्धि के अनुसार उपदेश दिये हैं। भगवान् पार्श्वनाथ ने अपने साधुओं की बुद्धि को जानकर चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया था। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य 'बहिद्धी' का अर्थ स्त्री के प्रति आसक्ति एवं वासना को आन्तरिक परिग्रह समझ कर बाह्य परिग्रह की तरह उसका भी त्याग करते थे।१३ इसलिए पार्श्वनाथ भगवान् को पंचयाम धर्म का उपदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ी। अर्थात् उन्होंने ब्रह्मचर्य का उपदेश देना आवश्यक नहीं माना।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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