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________________ ९४ तीर्थंकर पार्श्वनाथ - जैनधर्म की दिगम्बर आमनाय में चातुर्याम शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग", उत्तराध्ययन सूत्र आदि अर्धमागधी आगमों में चातुर्याम धर्म की विस्तार से विवेचना उपलब्ध है। स्थानांग में कहा गया है कि "भरहेरावएसु णा वासेसु पुरिमपच्छिमवज्जा मज्झिभगा बाबीसं अरहंता भगवंत चाउज्जामं धम्मं पन्नविंति। तं जहा - संवाओ पाणादवायाओ वेरमणं, एवं मुसावायाओ, अदिन्नादाणाओ, सव्वाओबहिद्धादाणाओ वेरमणं ।" अर्थात् भरत और ऐरावत में प्रथम और अंतिम तीर्थकर को छोड़कर शेष बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उपदेशक दो प्रकार के होने के कारण धर्म दो प्रकार का हैं। पहला धर्म अहिंसा, असत्य, अचौर्य, अपरिग्रह' और ब्रह्मचर्य, जिसका उपदेश प्रथम और अंतिम तीर्थंकर ने दिया था। दूसरा धर्म वह जिसका उपदेश शेष बाईस तीर्थंकरों ने दिया। तदानुसार सर्व प्राणातिपात विरति, सर्वमृषावाद विरति, सर्वअदत्तादान विरति और सर्व बहिधाआदान विरति । ये चार याम हैं। सर्व प्राणातिपात का अर्थ समस्त जीवों की हिंसा, सर्वमृषावाद का अर्थ समस्त असत्य, सर्व अदत्तादान का अर्थ सभी प्रकार की आदेय वस्तु अर्थात् स्तेय, सर्ववहिधादान का अर्थ समस्त बाह्य वस्तु अर्थात् परिग्रह है। अत: सम्पूर्ण हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह से विरमण अर्थात् विरति होना या इनका त्याग करना चातुर्याम है। क्योंकि हिंसा आदि चारों यम के समान दु:खदायी है। इसलिए जिस धर्म में इन कुत्सित रूप प्रवृत्तियों से निवृत होने का उपदेश दिया गया है, वह चातुर्याम धर्म कहलाता है। व्रतों में भी उक्त अशुभ प्रवृति की निवृति होती है। अत: यहां चातुर्याम से तात्पर्य चार महाव्रतों से भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश क्यों दिया? अब यहां जिज्ञासा होती है कि जब प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने और अंतिम तीर्थंकर महावीर ने पांच यमों या व्रतों का उपदेश दिया तो पार्श्वनाथ
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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