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________________ भ. पार्श्वनाथ उपदिष्ट चातुर्याम धर्म हैं।१६ इसका कारण वही है जो उत्तराध्ययन सूत्र में बतलाया गया है। अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के शिष्य ऋजु स्वभाव के होते हैं, इसलिए उन्हें कठिनाई से निर्मल किया जाता है और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य वक्र स्वभाव के होते हैं, इसलिए बहुत कठिनाई से उन्हें सही मार्ग पर लगाया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि पूर्ववर्ती और पाश्चात्य-वर्ती तीर्थंकरों के शिष्य कल्प (उचित), अकल्प (अनुचित) को स्पष्ट रूप से नहीं जानते थे। तीसरी बात यह है कि महाव्रतों को समझना समझाना, विभाग और विश्लेषण करना सरल होता है, इसलिए उन दोनों तीर्थंकरों ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है।१७ . - - - - यहां पर संक्षेप में सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का अर्थ अंकित करना आवश्यक है। ... सामायिक : वट्टकेर ने मूलाचार में सावध योग के त्याम करने को सामायिक कहा है। तत्वार्थ सूत्र के टीकाकार पूज्यपाद आदि आचार्यों ने समस्त पापों से निवृत होने रूप सामायिक की अपेक्षा एक व्रत कहा है। और वहीं छेदोपस्थापना की अपेक्षा पांच प्रकार का बतलाया है।१९ छेदोपस्थापना : सामायिक संयम के विभाजन को छेदोपस्थापना कहते हैं। वसुनन्दि ने इसका अर्थ पाँच महाव्रत किया है। २० । · · इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी सामायिक और छेदोपस्थापना संयम का अर्थ सुनिश्चित किया गया है। व्याख्या प्रज्ञप्ति में कहा गया है कि सामायिक करने से चातुर्याम धर्म का पालन होता है और सामायिक का विभाजन कर पांच यमों में स्थित होना छेदोपस्थापक हैं।२१ . उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मूलाचार में जिसे सामायिक कहा गया है, उसी को स्थानांग व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि में चातुर्याम कहा गया है और मूलाचार में जिसे छेदोपस्थापना संयम कहा गया है उसी को उत्तराध्ययन में 'पंच-सिक्खिया' नामक धर्म कहा गया है। इसी को पंचयाम भी कहा है। अत: कहा जा सकता है कि भगवान्
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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