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________________ जैन एवं जैनेतर साहित्य में पार्श्वनाथ प्रचार ही कर रहे थे। अत: पैथागोरस आदि पार्श्वनाथ के उपदेशों से प्रभावित रहे प्रतीत होते हैं।१४ मेजर जनरल फर्लाग के कथनानुसार लगभग १५०० से ८०० ईसा पूर्व पर्यन्त बल्कि उसके बहुत पूर्व अनिश्चित काल से सम्पूर्ण उत्तरी पश्चिम तथा मध्य भारत में तुरानियों का, जिन्हें सुविधा के लिए द्रविड़ कहा जाता है, प्रभुत्व रहता रहा था। उनमें वृक्ष, नाग, लिंग आदि की पूजा प्रचलित थी, किन्तु उसके साथ ही साथ उस काल में सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक ऐसा अति अवस्थित, दार्शनिक, सदाचार, एवं तप प्रधान धर्म अर्थात् जैन धर्म अवस्थित था। जिसके आधार से ही ब्राह्मण एवं बौद्धादि धर्मों के सन्यास मार्ग बाद में विकसित हुए। - आर्यों के गंगा तट व सरस्वती तट पर पहुंचने के पूर्व ही लगभग बाईस प्रमुख संत अथवा तीर्थंकर जैनों का धर्मोपदेश दे चुके थे। उनके उपरान्त आठवीं नौवी शती ईसा पूर्व में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए और उन्हें अपने उन समस्त पूर्व तीर्थंकरों का ज्ञान था, जो बड़े-बड़े समयान्तरों को लिये हुए पहले हो चुके थे। उन्हें उन अनेक धर्म शास्त्रों का भी ज्ञान था, जो प्राचीन होने के कारण पूर्व या पुराण कहलाते थे और जो सुदीर्घ काल से मान्य मुनियों, वानप्रस्थों या वनवासी साधुओं की परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित होते आ रहे थे। । कुछ लोग पार्श्वनाथ धर्म को चातुर्याम धर्म भी कहते हैं और इसका कारण यह बताया जाता है कि उनके द्वारा उपदेशित महाव्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत की गणना नहीं थी, केवल अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह ही थे और भगवान् महावीर ने उनमें ब्रह्मचर्य को सम्मिलित करके व्रतों की संख्या पांच कर दी। __भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्य परंपरा के साधु बुद्ध के समय तक विद्यमान थे। गौतम-केशी संवाद की घटना इस बात की सूचक है कि पार्श्व परम्परा के महावीर कालीन साधु कतिपय बातों में महावीर के उपदेश से मतभेद रखते थे। अत: उनके नेता केशी का महावीर के प्रधान शिष्य
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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